ब्राह्मण-संत केर वंदनाः शुभकार्य पूर्व केर शिष्टाचार

tulsidasतुलसीदास जी सँ नव सर्जक – स्रष्टा केँ सीख लेबाक क्रम मे एखन हमरा लोकनि रामचरितमानस समान उच्चकोटिक सर्वस्वीकार्य महाशास्त्र – महाकाव्य केर रचना सँ पूर्व महाकवि द्वारा प्रस्तुत मंगलाचरण केर विभिन्न चरण केर स्वाध्याय मे छी। भगवान् केँ अपन प्रणाम अर्पित कएला उपरान्त महाकवि गुरुदेव केर चरणकमल – हुनक नखज्योति व चरणधूलि मे सब समाधान देखैत प्रणाम अर्पित कएलनि आर तेकर बाद….

ब्राह्मण एवं संत केर वंदना

बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥

पहिने पृथ्वीक देवता ब्राह्मण केर चरण केर वन्दना करैत छी, जे अज्ञान सँ उत्पन्न सब संदेह केँ हरयवाला थिकाह। फेर सब गुण केर खान संत समाज केँ प्रेम सहित सुंदर वाणी सँ प्रणाम करैत छी॥2॥
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥
संत लोकनिक चरित्र कपास केर चरित्र (जीवन) जेकाँ शुभ अछि, जेकर फल नीरस, विशद और गुणमय होएत अछि। (कपास केर डोडी नीरस होएत अछि, संत चरित्र मे सेहो विषयासक्ति नहि होएछ, तैँ ओहो नीरस भेल, कपास उज्ज्वल होएछ, संत केर हृदय सेहो अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार सँ रहित होएछ, ताहि कारण ओ विशद अछि और कपास मे गुण (तंतु) होएछ, तहिना संत केर चरित्र सेहो सद्गुणक भंडार होएछ, ताहि सँ ओ गुणमय होएछ।) (जेना कपास केर ताग सुई द्वारा सीबयकाल बनाओल गेल भूर (छेद) केँ अपन शरीर दैत ढकैत अछि, अथवा कपास जेना लोढ़ल गेलापर, कातल गेलापर और बुनल जेबाक कष्ट सहैत वस्त्र केर रूप मे परिणति पाबिकय दोसराक गोपनीय स्थान केँ ढकैछ, तहिना) संत स्वयं दुःख सहियोकय दोसराक छिद्र (दोष) केँ ढकैत अछि, जाहि कारण ओ जगत मे वंदनीय यश प्राप्त करैछ॥3॥
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥
संत केर समाज आनंद और कल्याणमय होएछ, जे संसार मे चलैतो-फिरैतो तीर्थराज (प्रयाग) थीक। जतय (ओहि संत समाज रूपी प्रयागराज मे) राम भक्ति रूपी गंगाजी केर धारा अछि और ब्रह्मविचार केर प्रचार सरस्वतीजी थिकी॥4॥
बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5॥
विधि और निषेध (ई करू और ई नहि करू) रूपी कर्म केर कथा कलियुगक पाप सब केँ हरण करयवाली सूर्यतनया यमुनाजी थिकी और भगवान विष्णु एवम् शंकरजी केर कथा सब त्रिवेणी रूप सँ सुशोभित अछि, जे सुनिते देरी आनंद और कल्याण देमयवाला अछि॥5॥
बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥
(ओहि संत समाज रूपी प्रयाग मे) अपन धर्म मे जे अटल विश्वास अछि, वैह अक्षयवट थीक और शुभ कर्म टा ओहि तीर्थराज केर समाज (परिकर) थीक। ओहि (संत समाज रूपी प्रयागराज) हर देश मे, हरेक समय सबगोटा केँ सहजहि प्राप्त भऽ सकैछ और आदरपूर्वक सेवन कएला सँ क्लेश सब केँ नष्ट करयवाला बनैछ॥6॥
अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥7॥
ओ तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय अछि एवं तत्काल फल देमयवाला अछि, ओकर प्रभाव प्रत्यक्ष अछि॥7॥

दोहा :

सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥
जे मनुष्य एहि संत समाज रूपी तीर्थराज केर प्रभाव प्रसन्न मन सँ सुनैत छथि और बुझैत छथि, आर फेरो अत्यन्त प्रेमपूर्वक एहिमे गुरकुनिया लगबैत छथि, ओ एहि शरीर केर रहिते धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारू फल पाबि जाएत छथि॥2॥
चौपाई :
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥
एहि तीर्थराज मे स्नान केर फल तत्काल एहेन देखय मे अबैत अछि जे कौआ कोयल बनि जाएछ और बगुला हंस। ई बात सुनिकय कियो गोटे आश्चर्य नहि करब, कियैक तऽ सत्संग केर महिमा छिपल नहि अछि॥1॥
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥
वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी अपना-अपना मुंह सँ अपन होनी (जीवन केर वृत्तांत) कहने छथि। जल मे रहयवाला, जमीन पर चलयवाला और आकाश में विचरयवाला नाना प्रकार केर जड़-चेतन जतेक जीव एहि संसार मे अछि॥2॥
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥
ओहि मे सँ जे जाहि समय जतय कतहुओ जाहि कोनो यत्न सँ बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पौलनि अछि, से सबटा सत्संग केर मात्र प्रभाव बुझबाक चाही। वेद मे और लोक मे हिनका लोकनिक प्राप्ति केर दोसर कोनो उपाय नहि अछि॥3॥
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
सत्संग केर बिना विवेक नहि होएछ और श्री रामजी केर कृपा बिना ई सत्संग सहजहि नहि भेटैछ। सत्संगति आनंद और कल्याण केर जैड़ थीक। सत्संग केर सिद्धि (प्राप्ति) मात्र फल थीक और सब साधन तऽ फूल थीक॥4॥
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥
दुष्ट सेहो सत्संगति पाबिकय सुधैर जाएत अछि, जेना पारस केर स्पर्श सँ लोहा सुहाओन भऽ जाएछ (सुंदर सोना बनि जाएछ), मुदा दैवयोग सँ यदि कोनो सज्जन कुसंगति मे पड़ि जाएछ, तऽ ओ ओतहुओ साँप केर मणिक समान अपन गुण केँ मात्र अनुसरण करैत अछि। (अर्थात्‌ जाहि तरहें साँप केर संसर्ग पाबियोकय मणि ओकर विष केँ ग्रहण नहि करैछ तथा अपन सहज गुण प्रकाश केँ नहि छोड़ैछ, तहिना साधु पुरुष दुष्ट केर संग मे रहियोकय दोसर केँ प्रकाश टा दैत अछि, दुष्टक प्रभाव ओकरा ऊपर नहि पड़ैछ।)॥5॥
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डित केर वाणी सेहो संत महिमाक वर्णन करय मे लजाएत अछि, ओ हमरा सँ कोन तरहें कहला जायत, जेना साग-तरकारी बेचनिहार सँ मणि केर गुण समूह नहि कहल जा सकैछ॥6॥
दोहा :
बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥
हम संत केँ प्रणाम करैत छी, जिनकर चित्त मे समता छन्हि, जिनकर न कियो मित्र छन्हि आर नहिये शत्रु! जेना अंजलि मे राखल गेल सुंदर फूल (जाहि हाथ द्वारा फूल केँ तोड़ल गेल और जाहि मे ओकरा राखल गेल ओ) दुनू हाथ केँ समान रूप सँ सुगंधित करैछ (ओनाही संत शत्रु और मित्र दुनू केँ समान रूप सँ कल्याण करैछ।)॥3 (क)॥

संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)

संत सरल हृदय और जगत केर हितकारी होएत छथि, हुनकर एहेन स्वभाव और स्नेह केँ जानिकय हम विनय करैत छी, हमर एहि बाल-विनय केँ सुनिकय कृपा कय केँ श्री रामजी केर चरण मे हमरा प्रीति दैथ॥ 3 (ख)॥