गीताः तत्त्व केँ बुझैत कर्म करू – परमात्मा मे सदैव लीन रहू

गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय
 
krishna-arjun-54ffdf5405270_exlst(निरन्तरता मे… भगवान् कृष्ण द्वारा अपन बेर-बेर अवतारक रहस्य व बेर-बेर जन्म लेबाक प्रकृति हरेक जीब केर रहल से स्पष्ट करैत आसक्ति, भय व क्रोध सँ मुक्त भऽ केवल परमात्मा मे सदिखन मोन लगेने, ज्ञानरूप तपस्या सँ पवित्र केवल परमात्माक शरण मे रहनिहार हुनकर लोक केँ पाबि चुकल अछि, एहेन महत्वपूर्ण नीतिवचन कहि मुक्ति पेबाक उपाय बतौलनि अछि कृष्ण। आब आगाँ….)
 
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥४-११॥
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥४-१२॥
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥४-१३॥
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहां।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥४-१४॥
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्॥४-१५॥
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥४-१६॥
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यञ्च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥४-१७॥
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥४-१८॥
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥४-१९॥
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः॥४-२०॥
निराशीर्यचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥४-२१॥
 
 
भगवान् श्रीकृष्ण अपना धरि यानि परमात्मा धरिक पहुँच केर सहज बाट सैद्धान्तिक रूप मे कहलाक बाद – आगाँ आरो फरिछाकय बाट देखबैत कहैत छथिः
 
हे पृथानन्दन! जे भक्त जाहि प्रकार हमर शरण लैत अछि, हम ओकरा ओही प्रकार सँ आश्रय दैत छी; कियैक तँ सब मनुष्य सब प्रकार सँ हमरहि मार्ग केर अनुसरण करैत अछि। कर्मक सिद्धि (फल) चाहनिहार लोक देवता सबहक उपासना कैल करैत छथि; कियैक तऽ एहि मनुष्यलोक मे कर्म सँ उत्पन्न होवयवला सिद्धि जल्दी भेट जाएत छैक।
 
उपरोक्त दुइ श्लोक ११ आर १२ मे भगवान् दुइ महत्वपूर्ण बात हमरा लोकनि वास्ते आत्मसात करबाक निमित्त कहलैन अछि। स्वामी स्वरूपानन्द जी कहैत छथि, पहिल बात जे भगवान् पर पक्षपात करबाक जे एक तरहक चर्चा कैल जाएछ तेकरा ओ एहिठाम खारिज करैत कहलैन अछिः जे जाहि तरहें हुनकर शरण ग्रहण करैत अछि, तेकरा ताहि तरहक अभीष्ट सँ पोषण करैत छी। अर्थात् भगवान् केकरो भरपूर दैत छथि, केकरो कमी मे रखैत छथि तेकरा स्पष्ट रूप सँ एना बुझल जाय जे ई ओकर अपन स्वयं केर अपनायल राह सँ मंजिल धरि पहुँचेबाक विधान भगवान् कहलैन अछि, ई ओकर अपन इच्छा आ कर्म करबाक बाट थीक जे ओकरा परमात्मा ओहि तरहक उपलब्धि दियौलनि। दोसर बात एतय भगवान् ईहो स्पष्ट कएलनि जे कोनो बाट – नीक आ कि बेजा, मजगुत आ कि कमजोर… सब बाट हुनकहि थिकन्हि जेकर लोक अनुसरण करैत अछि। विचार आर कर्तब्यक समस्त क्षेत्र जाहि सँ अभीष्टक प्राप्ति होएत अछि ओ सब ईश्वर केर मार्ग थीक। अहाँक अपन चुनाव आब जेहेन हो!
 
भगवानक कहब निरंतरता मे अछि, ओ आगाँ कहलैन, “हमरा द्वारा गुण आर कर्म केँ विभागपूर्वक चारि वर्ण केर लोक रचना कैल गेल अछि। ओहि (सृष्टि-रचना आदि)-केर कर्ता भेलोपर हम अविनाशी परमेश्वर केँ अहाँ अकर्ता जानू! कारण जे कर्म केर फल मे हमर स्पृहा नहि अछि, ताहि सँ हमरा कर्म लिप्त नहि करैत अछि। एहि तरहें जे हमरा तत्त्व सँ जानि लैत अछि, ओहो कर्म सँ नहि बन्हाइत अछि।”
 
चारि वर्ण यानि चारि प्रकारक लोक – जेकरा कालान्तर मे जातीय व्यवस्था सँ मनुष्य स्वयं एकटा जंजाल समान बना लेने अछि। आइ ई एकटा पैघ बहस केर विषय बनि गेल छैक जे आखिर ई जातीय वर्गीकरणक कोन आवश्यकता छल। सृष्टिक संग चारि वर्ण – जरुर विभिन्न मार्ग केर अनुसरण करबाक लेल भगवान् एकटा विधान बनेने हेता। आर ओहि मार्ग पर चलनिहार मे बलगर-कमजोर आ सब तरहक लोक बनेने हेता। तखन चारि वर्ण केर लोक अपन-अपन प्रकृति आ ताहि मे निहित गुणक मिश्रण अनुरूप बनल तऽ एहि मे अतिश्योक्ति कि, चारि विभाग मे लोक कर्मानुसार वर्णरूप मे जानल गेल।
 
एकटा आरो बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एतय कहल गेल अछि जे एतेक केलाक बादो भगवान् केँ कर्ता नहि, अकर्ता जानू। से कियैक? से एहि लेल जे ओ सब नियति अनुसार भगवान् केँ करहे पड़ैत छन्हि, एहि मे करबाक बाद जे परिणाम आओत ताहि संग हुनका कोनो प्रकारक स्पृहा – नीक-बेजाय केर आशा-अपेक्षा आदि किछु नहि छन्हि। ओ कर्म मे लिप्त रहितो कर्म मे एहि लेल लिप्त नहि छथि जे ई सब बात एहि सृष्टिक नियति थीक। ई बात केँ हम सब पूर्णरूप मे जानी, हमरो सबकेँ सद्गति भेटत। भगवान् निर्णय सुना देने छथि। भगवान् एकरा क्रमशः आरो फरिछाबैत जा रहला अछि, देखू आगू।
 
“पूर्वकाल केर मुमुक्षु लोकनि एहि तरहें तत्त्व केँ बुझैत कर्म केलनि अछि, तैँ अहाँ सेहो पूर्वज सबहक द्वारा सदा सँ कैल जायवला कर्म टा केँ (हुनकहि सब जेकाँ) करू। कर्म कि थीक और अकर्म कि थीक — एहि प्रकारें एहि विषय मे विद्वान् सेहो मोहित भऽ जाएत छथि। तैँ ओ सब कर्म-तत्त्व हम अहाँ केँ नीक जेकाँ कहब, जे जानिकय अहाँ अशुभ (संसार-बन्धन)-सँ मुक्त भऽ जायब। कर्म केर तत्त्व सेहो जानबाक चाही और अकर्म केर तत्त्व सेहो जानबाक चाही तथा विकर्म केर तत्त्व सेहो जानबाक चाही; कियैक तऽ कर्म केर गति गहन अछि अर्थात् बुझय मे ब़ड कठिन अछि। जे मनुष्य कर्म मे अकर्म देखैत अछि और जे अकर्म मे कर्म देखैत अछि, ओ मनुष्य सब मे बुद्धिमान् अछि, ओ योगी अछि और सम्पूर्ण कर्म केँ करनिहार (कृतकृत्य) अछि। जेकरा सम्पूर्ण कर्म केर आरम्भ संकल्प और कामना सँ रहित अछि तथा जेकर सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्नि सँ जैर चुकल अछि, ओकरा ज्ञानिजन सेहो पण्डित (बुद्धिमान्) कहैत छथि। जे कर्म और फल केर आसक्ति केँ त्याग कय केँ (संसार केँ) आश्रय सँ रहित और सदा तृप्त अछि, ओ कर्म मे नीक जेकाँ लागलो रहला पर वास्तव मे किछुओ नहि करैत अछि। जेकर शरीर और अन्त:करण नीक जेकाँ वश मे कैल जा चुकल छैक, जे सब तरहें संग्रह केर परित्याग कय देने अछि, एहेन इच्छारहित (कर्मयोगी) केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करैतो पाप केँ प्राप्त नहि होइत अछि।….”
 
क्रमशः……..
 
ॐ तत्सत्!!
 
हरिः हरः!!