गीताः कर्म करब मनुष्यक स्वभाव अछि, निग्रह कि करत!!

गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय

krishna-arjun-54ffdf5405270_exlst(निरंतरता मे…. भगवान् कृष्ण द्वारा कर्मयोग केर विविध आयामक वर्णन करैत कर्म करबाक रहस्योद्घाटन कैल गेल जे प्रकृति प्रदत्त गुण आप सँ आप कर्म करबाक लेल उद्यत् होइत अछि, तथापि मूढात्मा स्वयं केँ कर्ता मानि बैसैत फल्लाँ काज करब – फल्लाँ केलहुँ – फल्लाँ नहि करब आदि बुझैत अछि, जखन कि तत्त्वविद् गुण आर कर्मक विभाग केँ जनैत गुणहि द्वारा गुण मे रहब-जाएब होइत रहबाक कारण स्वयं ताहि मे लिप्त नहि होइत अछि। जानकार लोक केँ चाही जे अन्जानक बुद्धि केँ भ्रमित नहि करय, बल्कि अपने समान शुद्ध आचरण आर कर्म करबाक उपाय ओकरो बताबय। ई कहैत भगवान् अर्जुन सँ कहलनैन जे अहाँ सब किछु हमरा मे संन्यस्य (समर्पित) करैत अपन मन-मस्तिष्क केँ आत्मकेन्द्रित करैत कोनो आशा वा स्वार्थ सँ छुटकारा पाबि बस युद्ध करू।… आब आगू….)

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥३-३१॥
ये त्वेदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांसतान्विद्धि नष्टाचेतसः॥३-३२॥
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥३-३३॥

श्रद्धावन्तः अनसूयन्तः ये मानवाः मे इदं मतम् नित्यम् अनुतिष्ठन्ति ते अपि कर्मभिः मुच्यन्ते। तू ये एतत् मे मतम् अभ्यसूयन्तः न अनुतिष्ठन्ति सर्वज्ञानविमूढान् अचेतसः तान् नष्टान् विद्धि। ज्ञानवान् अपि स्वस्याः प्रकृतेः सदृशं चेष्टते भूतानि प्रकृतिं यान्ति निग्रहः किं करिष्यति।

Those men who constantly practise this teaching of Mine, full of Sraddha and without caviling, they too, are freed from work.

But those who decrying this teaching of Mine do not practise (it), deluded in all knowledge, and devoid of discrimination, know them to be ruined.

Even a wise man acts in accordance with his own nature; beings follow nature; what can restraint do?

– Swamy Swaroopananda

जे व्यक्ति दोष-दृष्टि सँ रहित भऽ श्रद्धापूर्वक हमर एहि (पूर्वश्लोक मे वर्णित) मतकेर सदैव अनुसरण करैत अछि, ओहो कर्मक बन्धन सँ मुक्त भऽ जाएछ।

परन्तु जे मनुष्य हमर एहि मत मे दोष-दृष्टि करैत एकर अनुष्ठान नहि करैछ, ओ सम्पूर्ण ज्ञान मे मोहित आर अविवेकी मनुष्य केँ नष्टे भेल बुझू अर्थात् ओकर पतन होयब सुनिश्चित अछि।

सम्पूर्ण प्राणी प्रकृति केँ प्राप्त होएत अछि। ज्ञानी महापुरुष सेहो अपन प्रकृतिक अनुसार चेष्टा करैत अछि। फेर भला एहि मे केकरो हठ कि करत?

एहि तीन श्लोक मे भगवान् पूर्ववर्णित समस्त कर्माचरण – कर्म-मिमांसा – कर्म-सिद्धान्त केँ आरो सुदृढ रूप सँ स्थापित कएलनि अछि। अर्जुन पहिने सँ विषादियोग सँ प्रभावित छथि, बहुतो प्रकार सँ हुनका बुझेबाक क्रम मे भगवान् बेर-बेर हुनका समुचित शिक्षा देलाक बाद अपन मत प्रकट करैत छथि। कतहु तऽ अर्जुन आरो जिज्ञासा कय रहला अछि, कतहु भगवान् स्वयं हुनका आरो स्पष्ट होयबाक लेल अपन वचन केँ विस्तार दैत छथि। एतय देखल जाय तऽ हुनका एकनिष्ठ भाव सँ कर्म (युद्ध) करबाक लेल कहलाक बादो भगवान् पुनः स्पष्ट कएलनि जे उपरोक्त विधान केँ जे श्रद्धावान् – दोषरहित मनुष्य अनुसरण करैत अछि, ओहो कर्मबन्धन सँ मुक्त अछि। जे एहि मत केर खंडन करबा मे बुद्धिक उपयोग करैत अछि, ओ विभिन्न ज्ञान मे ओझरायल अछि, ओकरा नष्टे बुझू। सीधा बात छैक जे प्रकृति स्वस्फूर्त कर्म करबे करत, तखन फेर निग्रहक ढोंग सँ कि होयत। भगवान् प्रश्न करिते ओहि विभिन्न कर्मकाण्डी मतक एतय खंडन करैत छथि जाहि सँ परिणाम प्रदायक विभिन्न दाबी कैल जाएछ। कर्म-आचरण मे परिवर्तन लेल आपरूपी कर्ताकेँ सर्वोपरि देखायल जाएछ, ताहि सब केँ प्रकृति अनुरूप कर्म करबाक सिद्धान्त सँ काटि रहला अछि भगवान्।

स्वामी स्वरूपानन्द जी द्वारा निरूपित टीका मे किछु बात केँ बहुत प्रभावी ढंग सँ बुझायल गेल अछि। उपरोक्त अंग्रेजी वर्सन अन्वय मे ओ श्रद्धा शब्द केँ श्रद्धा टा कहिकय संबोधन केला। आउ, देखी, हुनक टीका श्रद्धा शब्द केँ आरो फरिछाबैत कि कहैत अछिः

Sraddha: is a mental attitude constituted primarily of sincerity of purpose, humility, reverence, and faith. You have Sraddha for your Guru – it is sincere reverence. You have Sraddha for the Gita – it is admiration for those of its teachings you understand and faith in those that you do not. You give alms to a beggar with Sraddha – it is a sense of humility combined with the hope that what you give will be acceptable and serviceable.

तहिना स्वामीजी द्वारा श्लोक ३३ पर टीका कहैत अछि जे भगवान् निग्रहः किं करिष्यति कहैत ओ कारण स्पष्ट केलनि अछि जे बहुतो प्रकार सँ हुनक देल सीख केँ नहि माननिहार द्वारा दाबा कैल जाएछ सेहो कोनो काजक नहि, कारण प्रकृति सबहक होएत छैक, ताहि मुताबिक सबकेँ चेष्टा करहे पड़ैत छैक। तखन ई कहब जे एहि सँ बचू, ओ नहि करू, एना जिबू… आदि मे दिमाग ओझरेनाय अपना केँ भटकेनाय समान अछि। जे करू, यज्ञ समान ईश्वर मे समर्पणक भाव सँ करू। आत्मा मे केन्द्रित बनू। फलक (परिणामक) आशा-अपेक्षा सँ ऊपर उठू। भगवान् केर सुमिरन मे जेना जे भऽ रहल अछि ताहि सँ निरपेक्षभावेन आगू बढैत चलू!!

आइ, एतबी!!

हरिः हरः!!