मैथिली सुन्दरकाण्डः मंदोदरी-रावण संवाद

मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री तुलसीदासजी रचित श्रीरामचरितमानस केर सुन्दरकाण्डक मैथिली अनुवाद

मंदोदरी-रावण संवाद

चौपाई :
ओम्हर निशाचर रहय सशंका। जहिया सँ जरा गेला कपि लंका॥
निज निज गृह सब करय विचारा। नहि निशिचर कुल केर उबारा।१॥
भावार्थ:- ओम्हर (लंका मे) जहिया सँ हनुमान्‌जी लंका केँ जराकय गेलाह, तहिया सँ राक्षस सब भयभीत रहय लागल। अपना-अपना घर मे सब विचार करैत छल जे आब राक्षस कुल केर रक्षा (के कोनो उपाय) नहि अछि॥१॥
जिनक दूत बल वर्णल नहि जाइ। से औता पुर केना भलाइ॥
दूतिन सँ सुनि पुरजन वाणी। मंदोदरी बहुत अकुलानी॥२॥
भावार्थ:- जिनकर दूत केर बलक वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि, हुनका स्वयं नगर एलापर केना भलाइ होयत (हमरा सभक बड़ खराब दशा होयत)? दूतिन सँ नगरवासी सभक वचन सुनिकय मंदोदरी बहुते व्याकुल भ गेलीह॥२॥
रहथि जोड़ि कर पति पग लागल। बजली बोल नीति रस सानल॥
कन्त छोड़ु हरि संग विरोध। मोर कहल हित हिया धरु बोध॥३॥
भावार्थ:- ओ एकांत मे हाथ जोड़िकय पति (रावण) केर चरण लागि गेली आर नीतिरस सानल बोल बजली – हे प्रियतम! श्री हरि सँ विरोध छोड़ि दिअ। हमर कहल बात केँ हितकर जानि अपन हृदय आ बुद्धि मे धारण करू॥३॥
बुझी जिनक दूत केर करनी। खसल गर्भ रजनीचर घरनी॥
तिनक नारि निज सचिव बजाइ। पठबू कंत जँ चाहि भलाइ॥४॥
भावार्थ:- जिनकर दूत केर करनीक विचार करिते टा (स्मरण अबिते मात्र सँ) राक्षसगणक स्त्रि लोकनिक गर्भ खसि पड़ैत छैक, हे प्रिय स्वामी! यदि भला चाहैत छी त अपन मंत्री केँ बजाकय ओकरहि संग हुनकर स्त्री केँ पठा दियौन॥४॥
एहि कुल कमल विपिन दुख छायल। सीता शीत निशा सम आयल॥
सुनू नाथ सीता बिनु देने। हित ने अहाँक शम्भु अज केने॥५॥
भावार्थ:- सीता अहाँक कुल रूपी कमल केर वन केँ दुःख दयवाली जाड़क रात्रि केर समान आयल अछि। हे नाथ! सुनू! सीता केँ देने (लौटेने) बिना शम्भु और ब्रह्मा केर कयलो उपरान्त अहाँ भला नहि भऽ सकैत अछि॥५॥
दोहा :
राम बाण साँप समूह जेकाँ बेंग निशाचर सेन।
जा नहि ग्रासल ता धरि मे यत्न करू तजि ऐन॥३६॥
भावार्थ:- श्री रामजी केर बाण साँप केर समूह समान अछि और राक्षस सैन्यबलक समूह बेंग केर समान। जा धरि ओ एकरा सब केँ ग्रास नहि बना लैत अछि (निगैल नहि जाइछ) ता धरि आइन (अहंकार) छोड़िकय उपाय कय लिअ॥३६॥
चौपाई :
श्रवण सुनल शठ हुनकर वाणी। बिहँसल जगत विदित अभिमानी॥
सभय स्वभाव नारि केर साँचे। मंगल मे भय मन अति काँचे॥१॥
भावार्थ:- मूर्ख और जगत प्रसिद्ध अभिमानी रावण कान सँ हुनकर (मन्दोदरीक) वाणी सुनिकय खूब हँसल (और बाजल -) स्त्रि सभक स्वभाव सचमुच मे बहुत डरपोक होइत छैक। मंगल मे सेहो भय करैत छी। अहाँक मन (हृदय) बहुते कच्चा (कमजोर) अछि॥१॥
जौं आयत बानर केर सेने। जिअत बेचारे निशिचर खेने॥
काँपहि लोकप जाहिक त्रासे। तेकर नारि सभीत बड हासे॥२॥
भावार्थ:- यदि वानर केर सेना आयत त बेचारा राक्षस ओकरा खाकय अपन जीवन निर्वाह करत। लोकपाल तक जेकर डर सँ काँपैत अछि, ओकर स्त्री (अहाँ) डराइत छी, ई बड़ा हँसीक बात थिक॥२॥
एते कहि बिहँसैत गला लगाकय। चलल सभा ममत्व देखाकय॥
मंदोदरी हृदय करि चिन्ता। भेला कन्त पर विध विपरीता॥३॥
भावार्थ:- रावण एतेक कहिकय हँसिकय हुनका हृदय सँ लगा लेलक आर ममता बढल (अधिक स्नेह दर्शाकय) ओ सभा मे चलि गेल। मन्दोदरी हृदय मे चिन्ता करयल लगलीह जे पति पर विधाता प्रतिकूल भऽ गेला अछि॥३॥
बैसल सभा खबरि ई पायल। सिंधु पार सेना सब आयल॥
पुछय सचिव उचित मत कहू। ओ सब हँसय मस्त भय रहू॥४॥
भावार्थ:- जखनहि ओ सभा मे जाकय बैसल, ओ एहेन खबरि पेलक जे शत्रुक सेना समुद्रक ओहि पार आबि गेल अछि, ओ मंत्री लोकनि सँ पुछलक जे उचित सलाह कहू (आब कि करबाक चाही?)। तखन ओ सब हँसल आ बाज जे मस्त (चुपचाप) भ कय रहू (एहि मे सलाहक कोन एहेन बात छैक?)॥४॥
जितल सुरासुर कोनो श्रम नाहिं। नर बानर कुन लेखा माहिं॥५॥
भावार्थ:- अहाँ देवता और राक्षस सब केँ जीत लेलहुँ, तहिया त कोनो श्रमे नहि भेल। फेर मनुष्य आ वानर कोनो गिनती मे अछि?॥५॥