कि जातिवाद आ वर्गवादक अन्त संभव अछि?

विचार-मंथन

– प्रवीण नारायण चौधरी

नर आ बानर – विज्ञानक कहब छैक जे बानरहि सँ नर केर विकास भेल अछि। नर केर आदम पुरुष बानर छल। विकासक्रम मे बानर जखन सभ्य भेल त नर केर रूप मे परिणति पाबि गेल। जखन कि सामान्य तर्कबुद्धि सँ हम सब बुझि रहल छी जे बानर एक जानवर थिक, नर ओकरा सँ भिन्न अछि। बहुत रास चरित्र आ चर्या मे समानता रहितो बानर सँ नर केर बुद्धि आ विवेक फराक छैक। मनुष्यक यैह बुद्धि आ विवेक आ रहन-सहन केर विशिष्टताक चलते कोटि-कोटि प्रकारक योनि मे मानवरूप केँ सर्वोच्च मानल जाइछ। मानव सँ परिभाषित होइत अछि मानवता, मानवीय, मानवीयता, मानवोचित आदि।
 
विज्ञानहि जेकाँ वेद आ पुराण विज्ञान सँ पहिनहि मानव जीवन आ दर्शन पर कइएक प्रकारक मत आ विचार रखने अछि। विदिते अछि जे वेदमत मे वर्णित कइएक महत्वपूर्ण बातक आधार पर विज्ञान अपन खोज दिन-ब-दिन नव-नव तरहक बनौने जा रहल अछि। एहि सँ एकटा गूढ सत्य स्पष्ट होइत छैक जे ई सब खोज पहिल बेर नहि भेल अछि, एकर स्थिति एहि प्रकृति आ जीवमंडल मे बहुत पहिनहि सँ भेल अछि।
 
विस्मृतिक अवस्था मे स्मृतिक स्थिति बनि जेबाक बात केँ हम सब ‘नया खोज’ अथवा ‘आविष्कार’ केर संज्ञा दय क्षणिक प्रसन्नता पबैत छी, कियैक तँ ‘वेद’ मे एहि सब बातक वर्णन बहुत पहिनहि सँ कय देल गेल अछि। ज्ञानक क्रम पीढी-दर-पीढी बहुत पूर्वहि सँ चलैत आबि रहल अछि। कोनो नव आविष्कारक श्रेय हम-अहाँ लय ली, ओ स्वयं केँ पोल्हाबय समान अछि – स्पष्टतः ईश्वर (अदृश्य शक्ति आ सम्पूर्ण तंत्र केर परिकल्पक-नियंत्रक) होयबाक तथ्य सेहो एहि सब कारणे मानव-मस्तिष्क आ शास्त्र-पुराण आदि मे वर्णित अछि।
 
जन्म, विकासक्रम आ मृत्यु – आरम्भविन्दु, यात्रा आ विश्राम; जीवनदर्शन केँ व्याख्या करबाक कतेको तरीका मे एक गोट एहि ३ अवयवक बीच मे समन्वय स्थापित कयला सँ एकदम सहजता सँ बहुत रास गूढ तथ्य बुझल जा सकैत अछि। जरूरी नहि जे कियो वेदविद् ब्राह्मण अथवा सुशिक्षित विज्ञजन कोनो जाति-समुदायक लोक होइथ, ई जीवनदर्शन निरक्षर, मन्दबुद्धि आ मूढ लोक सेहो बुझि सकैत अछि।
 
ई बुझबाक कारण छैक निज अनुभूति – जन्म भेलाक बाद सँ बुद्धि होयब, माता-पिता-परिजन-समाज केँ चिन्हब, अपन भाषा बाजब, अपन मोनक भाव प्रकट करब, मानव जीवन लेल आवश्यक कइएक प्रकारक संस्कार धारण करब, जीवन मे घटयवला अनेकों घटना आदिक भोग भोगब… ई सारा जीवन-अभ्यास जे निरन्तर जन्म सँ मृत्युक बीच प्रत्येक मनुष्य भोगैत अछि, ओ सब उपरोक्त सहज जीवनदर्शन केँ बुझि सकैत अछि।
 
आइ जातीय आधार पर मनुष्य-मनुष्य बीच विखंडन केँ आरोपित कयल जाइछ, जखन कि ई स्वयंसिद्ध तथ्य छैक जे बुद्धि आ विवेकक मात्रा अनुसारे बानर सँ नर बनबाक बात जेना विज्ञान कहने छैक, ठीक तहिना आइ शिक्षा आ संस्कार सँ मात्र मानव समुदाय मे ‘वर्गवाद’ आ ‘जातिवाद’ केँ समाप्त कयल जा सकैत अछि। परञ्च जेना कि प्रकृति विविधताक सिद्धान्त स्थापित अछि, पैघ-छोट, ऊँच-नीच, सम्पन्न-विपन्न आदिक द्वंद्व स्वाभाविके विद्यमान रहत, एहि पर मनुष्य केँ जीत हासिल करय लेल प्रकृतिक निर्माण सँ विनाश धरिक सम्पूर्ण कार्यविधि पर अपन नियंत्रण हासिल करय पड़त।
 
एकटा महत्वपूर्ण तथ्य पर गौर करू – मिथिला मे दुर्वाक्षत देबाक परम्परा छैक मिथिलाक मैथिल ब्राह्मण, मैथिल कायस्थ, मैथिल देव, मैथिल राजपुत, व संभवतः आरो-आरो अन्य विभिन्न सुशिक्षित-सम्भ्रान्त मैथिल द्विज जाति-समुदाय मे व्यवहृत अछि। एहि अवसर पर यजुर्वेद मे वर्णित एक विशेष मंत्रक उच्चारण कयल जाइत अछिः
 
ॐ आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्यः शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढ़ाऽनड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् ॥
 
– यजुर्वेद २२, मन्त्र २२
 
अर्थ-
ब्रह्मन् ! स्वराष्ट्र मे रहू, द्विज ब्रह्म तेजधारी।
क्षत्रिय महारथी होउ, अरिदल विनाशकारी ॥
होउ दुधारू गाय, पशु अश्व आशुवाही।
आधार राष्ट्र केर हो, नारी सुभग सदा हो ॥
बलवान सभ्य योद्धा, यजमान पुत्र हुअय।
इच्छानुसार वर्षू, पर्जन्य ताप धोउ ॥
फल-फूल सँ लदल रहू, औषध अमोघ सब।
होउ योग-क्षेमकारी, स्वाधीनता अपन ॥
 
ई मंत्र ‘राष्ट्रोत्थान’ लेल कहल गेल अछि, लेकिन उच्च सुशिक्षित-सुसंस्कृत समुदाय अपन घर मे होइवला शुभ कार्य मे ‘चुमाओन’ करैत छथि आर एहि अवसर पर दुर्वाक्षत (दुभि-धान) केँ मंत्र सँ सिक्त कय कर्त्ता केँ चुमबैत यानि आशीर्वाद दैत छथि। एकर प्रयोग भले कोनो युग मे जमीन्दारी आ रैय्यती केर जमाना आ बल प्रयोगक कारण किछु विशेष समुदाय मात्र अपना सकैत छल, मुदा आजुक समय एहि तरहक आरक्षण नहि लागि सकैत अछि। नीक अभ्यास सब करय! आर की!!
 
हरिः हरः!!