भूषणक घर उपास

लघुकथा

– रूबी झा

भूषण के घर में आय चारि दिन स चूल्हा में आँच नै पड़लैन । घर में एको कनमा अन्न नै छलैन । पैन पीब क दुनू बच्चा के पाँजड़ि में साटि भूषण के कनियाँ सुति रहै छलैथि । आय बड़का बेटा (५) बड कानै लगलैन, और छोटका (२) कानैयो के स्थिति में नै छलैन ततेक कमजोर भ गेल छलैन । भूषण सँ भूषन के कनियाँ कहलकन्हि, “यौ चलु ना, पीताम्बर बाबू के खेत में जन गेलैन हँ धान काटैय लेल । अपनो सब काटि आनब और बोइन जे हैत ओहि सँ चूल्हा में पजाड़ पड़त और बच्चा सब के भूख शांत हैत । लागैया दुनू बच्चा केँ अन्न बिना प्राण निकैल जैत ।” भूषण बजलाह, “मइर जैब चारु प्राणी पेट में पेट सटा क से मंजूर लेकिन दोसरा के खेत में ब्राम्हण भ क बोइन करय कोना जायब । लोक कि कहत । समाज कि सोचत ।” कनियाँ कहलखिन्ह, “कियैक? ब्राम्हण भेनाय अभिशाप छै की ? भूखल-प्यासल घर में प्राण त्यैग देब लेकिन किनको खेत में काज करय नै जैब ? लोक कि कहत, समाज कि सोचत, समाज हमरा खाय लेल द जाइ य की ? हमरा स त नीक फेकना अछि दुनू प्राणी बोइन करैया और बच्चा सब के पोसैयै ।”