एक गोट कविता सन किछु – संजीव

।। की कहू आब ।।
की कहू आब, किछु नय फुरैत अछि ।
घ'र आँगन मे भम्हटा पड़ैत अछि ।।

कत' गेल साओन बसात ओ झकास ।
धूरा बनि सभतरि मनुक्खटा उड़ैत अछि ।।

मजरक सुगंध ने, नेमोक फड़ ।
सभठाम देखू , अलकतरा जड़ैत अछि ।।

तोड़ि-ताड़ि निज सम्बंधक डोर केँ ।
नोन-रोटी दिल्ली मे नवतुर हेरैत अछि ।।

बूढ माइ बाप की पित्ती पित्तिआइनि ।
पोसल यौवन आब किछु ने बूझैत अछि ।।

बिलखि रहल अछि मालजालक बथान ।
सहरी अनतहिया आब रिकसा ठेलैत अछि ।।

बिलटि रहल अछि खेत-बारी खरिहान ।
ह'र बला हाथ आब बेलचा उघैत अछि ।।


मधुर ने नेह रहल, ने समांगक प्रीति ।
दोआरि पर जातिक जिंजीर चढैत अछि ।।

आँगन मे भाउज, ने दलान पर भाइ ।
गाम मे गमक ने, सहर महकैत अछि ।।

की कहू आब, किछु नय फुरैत अछि । घ'र आँगन मे भम्हटा पड़ैत अछि ।।

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