रामचरितमानस सँ सीख – ७

स्वाध्यायः रामचरितमानस सँ सीख – ७

विप्र धेनु सुर संत हित, लिन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मीत तनु माया गुन गोपार॥

१. मणि, माणिक और मोती केर जेहेन सुन्दर छवि छैक ओ साँप, पर्वत आर हाथीक माथ पर ओतेक शोभा नहि पबैत छैक जतेक कि राजाक मुकुट आर नवयुवती स्त्रीक शरीर केर संसर्ग पाबि ई सब अधिक शोभा केँ प्राप्त होएछ।

२. संसारी मनुष्यक गुणगान कएला पर सरस्वतीजी सेहो अपन माथ धुनिकय पछतावा करय लगैत छथि। बुद्धिमान लोक हृदय केँ समुद्र, बुद्धि केँ सीप आर सरस्वती केँ स्वाती नक्षत्र समान कहैत छथि। तैँ श्रीराम केर गुणगान कएले पर सरस्वतीजी केँ प्रसन्न कएल जा सकैत अछि।

३. हमरा सब केँ पृथ्वीलोक सँ लय केँ परमेश्वरक सब लोक मे अपन श्रेष्ठ सँ आशीर्वाद ग्रहण कइये केँ कोनो शुभ कार्य प्रारंभ करबाक चाही। सभक सहयोग मात्र सँ हम सब कोनो कीर्ति कय सकैत छी।

४. कीर्ति, कविता आर सम्पत्ति वैह उत्तम होएछ जे गंगाजी जेकाँ सभक हित करयवाली हो।

५. रेशम केर सियाइ टाट पर सेहो नीक लगैत छैक, अर्थात् सभक आशीर्वाद आर प्रभुजीक कृपा जँ भेटैत हो त किछुओ करब शुभे‍-शुभ होयत।

६. चतुर पुरुष वैह कविताक आदर करैछ जे सरल हो आ जाहि मे निर्मल चरित्रक वर्णन हो, संगहि जेकरा सुनिकय शत्रु सेहो स्वाभाविक वैरभाव बिसैरिकय ओकर सराहना करय लागय।

७. वालमीकि मुनि वन्दनीय छथि जे रामायण केर रचना केलनि अछि, ओ खर (राक्षस) भेलो पर बहुत कोमल आ सुन्दर छथि, ओ दूषण (राक्षस) भेलो पर दूषण अर्थात् दोष सँ रहित छथि।

८. चारू वेदक वन्दना अवश्य हेबाक चाही कियैक त संसार समुद्र केँ पार करबाक लेल यैह टा जहाज थिक।

हरिः हरः!!