हां, मैं महापात्र हूँ – मिथिला में महापात्र ब्राह्मण का परिचय

विचार आलेखः मिथिला में ‘महापात्र ब्राह्मण’

– प्रभाकर झा, मधुबनी

मिथिला क्षेत्र अपने कर्म, संस्कृति और परंपरागत सोंच के लिए विश्व में जाना जाता है और यहाँ हर वो संस्कृति अपने आप में जिज्ञासा उत्पन करता है। तिरहुत साम्राज्य की पहली राजधानी भौरागढ़ी से करीब 15 कोस दूर मधुबनी से सटा हुआ यह गाँव जितवारपुर मिथिला पेंटिंग के लिए विश्‍व विख्यात है। वहां करीब 150 घर महापात्र ब्राह्मण है। आज यहां महज 50 घर ही जजमान पर आश्रित होंगे। 100 घर के पास जजमान नहीं है या फिर वो दूसरे पेशे में चले गये हैं। इसका ये मतलब नहीं कि वो महापात्र नहीं हैं। महापात्र के लिए एक कथन बिलकुल सत्य और जटिल है। मैं महापात्र हूँ, ना पात्र होने का मोह है, ना श्मशान जाने का भय है।

महापात्र शब्द अपने आप में महान है वैसे तो महापात्र शब्द का शाब्दिक अर्थ महान+पात्र है, अर्थात वैसा पात्र (जन, मनुष्य ) जो महान है, अपने गुण, छवि और पांडित्य से; परंतु व्यवहारिक दृश्टिकोण से ऐसा नही है।

मिथिला में भी मुगल बादशाह का साम्राज्य था और उनके दरबार में अनेक पंडित रहा करते थे उनमे से एक थे महेश ठाकुर। जिन्हें मुगल बादशाह ने 27 मार्च 1556 को उनके पांडित्य से खुश होकर उन्हें तिरहुत का साम्राज्य दिया। वे पंडित तो थे ही और कर्मनिष्ट भी थे. दान लेने के उपरांत उन्होंने दान करने की इच्छा प्रकट की और वे ऐसे ब्राह्मण के खोज में लगे जो उनका दानपत्री बन सके। ब्राह्मण हो, अग्निहोत्री वंश का हो, कर्मनिष्ट और सुयोग्य भी हो । ऐसे ब्राह्मण उन्हें मधुबनी के कोइलख ग्राम में मिल गये, जिनका नाम क्रमशः इस प्रकार हैं। 1. लोकनाथ झा 2. देव नाथ झा 3. एक नाथ झा । तीनो प्रकांड विद्वान थे जिनका काकोबेलोच मूल और भारद्वाज गोत्र था। महेश ठाकुर ने इन्हें दानपत्री बनने का आग्रह किये, परंतु तीनों ब्राह्मण का एक ही उत्तर था सरकार मुझे कर्म करने की इच्छा है दान लेने की नहीं। महेश ठाकुर के नजर में यही तीनो सुयोग्य और कर्मकांडी ब्राह्मण हैं, दानपत्री इन्हें ही बनाया जाय और वे दवाब डालते रहे।

अंततः महेश ठाकुर ने उन्हें अपने राज्य से चले जाने को कहा की अगर आप मेरे और मेरे परिवार के दान पात्री नहीं बनते तो आपको तिरहुत साम्राज्य त्यागना होगा। उस समय का परिस्थति ही कुछ ऐसा था कि उनलोगों को प्राणत्याग करना सरल लगा परंतु ठाम त्याग कठिन। वैसा ही हुआ जैसा महेश ठाकुर ने चाहा अंततः उन्हें दानपात्री ( महापात्र) बनना पडा। लोकनाथ झा, देव नाथ झा, एकनाथ झा, इन तीनो में से लोकनाथ झा और देव नाथ झा ही महापात्र बने।

राजा महेश ठाकुर की मौत के उपरांत उनके पुत्र गोपाल ठाकुर राजा बने और वे अपने ही छत्र-छाया में महापात्र लोगों को आश्रय दिये। राजा नरेंद्र सिंह के शासन के साथ ही भौडा से राजधानी का दर्जा समाप्त कर दरभंगा को नूतन राजधानी घोषित किया गया और राजा दरभंगा चले गये । राज परिवार के चले जाने के बाद इन्हें भी कहा गया कि आप दरभंगा चले जाएँ और फिर पुराई झा जितवारपुर आये। महनपुर में केशव झा गये और एक जन साहपुर गये। वैसे महाराज का कुलपूज्य ( महापात्र ) श्री पुराई झा थे, परंतु उनके भाई होने के कारण केशव झा को दान का भाग दिया जाता था।

जैसे-जैसे महाराज होते गये तदनुसार कुलपूज्य आते गये सर्वप्रथम 1. स्व पुराई झा, 2. स्व हरी झा, 3. पोषण झा, 4. महामहा भजन झा, 5. दूल्हा झा, 6 कृष्णा झा, 7. जगधर झा, 8. उमाकांत झा, 9. रामनारायण झा, 10. पंडित श्री देवनारायण झा अभी हैं।
देवनारायण झा कहने के लिए महाराज के महापात्र हैं, उनके यहाँ सम्‍मान मिलता है, परंतु व्‍याहारिक देखे तो लोग घृणा करते है, समझ में नहीं आता क्यों। महापात्र जनरल कास्ट (सामान्य वर्ग) में आते हैं, परंतु उनके साथ जो व्‍यवहार किया जाता है, वो शायद अनुसूचित जातियों के साथ भी नहीं किया जाता है। क्योंकि वो कानूनन अपराध है। परन्तु इस ब्राह्मण समाज के लिए कोई कानून नहीं। लोग ये कहते हैं कि महापात्र तब आते हैं जब किसी का देहांत होता है, ये बात सत्य है। हाँ आते है, परन्तु बुलाने पर। लोग ये नही समझते कि उन्होंने जो महामांस दग्ध किया है, अतः उन्हें आशौच से निवृत्त होना है, इस परिस्थिति में तो अपने सगे- संबंधी भी उनके घर का जल ग्रहण नहीं करते, उस विषम परिस्थिति में महापात्र ब्राह्मण ही सर्वप्रथम जल या भोजन ग्रहण करके उनको उस आशौच से मुक्ति दिलाते हैं। अधुनिक समाज को यह समझना होगा कि महापात्र ब्राह्मण वो है जिन्हें अपने घर से पहले जजमान के घर की चिंता है उन्हें अपने जजमान को पहले मुक्ति दिलानी है।