मैथिली सुन्दरकाण्डः हनुमान्‌जी द्वारा अशोक वाटिका विध्वंस, अक्षय कुमार वध और मेघनादक हनुमान्‌जी केँ नागपाश मे बान्हिकय सभा मे लऽ गेनाय

मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री तुलसीदासजी रचित श्रीरामचरितमानस केर सुन्दरकाण्डक मैथिली अनुवाद

हनुमान्‌जी द्वारा अशोक वाटिका विध्वंस, अक्षय कुमार वध और मेघनादक हनुमान्‌जी केँ नागपाश मे बान्हिकय सभा मे लऽ गेनाय

दोहा :
देखि बुद्धि बल निपुण कपि कहली जानकी जाउ।
रघुपति चरण हृदय धरू तात मधुर फल खाउ॥१७॥
भावार्थ:- हनुमान्‌जी केँ बुद्धि और बल मे निपुण देखिकय जानकीजी कहली – जाउ। हे तात! श्री रघुनाथजी केर चरण केँ हृदय मे धारण कय केँ मीठ फल खाउ॥१७॥
चौपाई :
चलला नवा सिर पैसला बारी। फल खाथि गाछ तोड़थि भारी॥
रहय ओतय बहु भट रखवारी। किछु मारल किछु भागि बपहारी॥१॥
भावार्थ:- ओ सीताजी केँ माथ झुका प्रणाम कय केँ फूलबाड़ी मे पैसि गेला। फल खेलनि आ गाछ सब तोड़ल लगलाह। ओतय बहुत रास योद्धा रखवार सब छल। ओहि मे सँ किछु केँ मारि देलनि आ किछु बपहारि कटैत भागिकय रावण केँ आवाज देलक – ॥१॥
नाथ एक आयल कपि भारी। सैह अशोक वाटिका उजारी॥
खाय फल अरु गाछ उपाड़े। रक्षक मर्दि मर्दि कय मारे॥२॥
भावार्थ:- (और कहलक -) हे नाथ! एकटा बड़ा भारी बंदर आबि गेल अछि। ओ अशोक वाटिका उजाड़ि देलक। फल खेलक, गाछ सब उपाड़ि देलक आ रखवार सब केँ मसैल-मसैलकय मारि देलक॥२॥
सुनि रावण पठबे भट नाना। ताहि देखि गर्जथि हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संहारल। गेल पुकारैत किछु अधमारल॥३॥
भावार्थ:- ई सुनिकय रावण बहुते रास योद्धा पठेलक। ओकरा सब केँ देखिकय हनुमान्‌जी गर्जना कयलनि। हनुमान्‌जी सब राक्षस केँ मारि देलनि, किछु जे अधमरा छल, शोर करैते ओ वापस गेल॥३॥
पुनि पठेलक ओ अच्छकुमारा। चलल संग लय सुभट अपारा॥
आबत देखि गाछ धरि लड़ला। ओकरहु मारि महाधुनि गरजला॥४॥
भावार्थ:- फेर रावण अक्षयकुमार केँ पठेलक। ओ असंख्य श्रेष्ठ योद्धा सभ केँ संग लय केँ चलल। ओकरा अबैत देखिकय हनुमान्‌जी एकटा गाछ हाथ मे लैत ललकारलनि (लड़लनि) आर ओकरो मारिकय महाध्वनि (बड़ी जोर) सँ गर्जना कयलनि॥४॥
दोहा :
किछु मारल किछु मरदि देला किछु मिलेला धरि धूरि।
किछु पुनि जाय पुकार करय प्रभु बानर बल भूरि॥१८॥
भावार्थ:- ओ सेना मे सँ किछु केँ मारि देला, किछु केँ मसैल देला आर किछु केँ पकड़ि-पकड़िकय धूरा मे मिला देलाह। किछु तैयो वापस जाय केँ पुकार कयलक जे हे प्रभु! बानर बहुते बलवान् अछि॥१८॥
चौपाई :
सुनि पुत्र वध लंकेश रिसायल। मेघनाद बलवान पठायल॥
मारिहें जुनि बेटा बान्हे ओकरा। देखी कहाँक छी कपि तेकरा॥१॥
भावार्थ:- पुत्र केर वध सुनिकय रावण क्रोधित भऽ उठल आर ओ (अपन जेठ पुत्र) बलवान्‌ मेघनाद केँ पठेलक। (ओ कहलक जे -) हे पुत्र! मारिहें नहि, ओकरा बान्हिकय अनिहें। ओहि बंदर केँ देखल जाय जे कहाँ के छी॥१॥
चलल इंद्रजीत अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि ओकरो क्रोधा॥
कपि देखल दारुण भट आबैत। कटकटाइत गर्जैत ओ धावैत॥२॥
भावार्थ:- इंद्र केँ जीतनिहार अतुलनीय योद्धा मेघनाद चलल। भाई केर मारल जेनाय सुनि ओकरो क्रोध आबि गेल छलैक। हनुमान्‌जी देखला जे एहि बेर भयान योद्धा आयल अछि। तखन ओ कटकटाकय गर्जला आर दौड़ला॥३॥
अति विशाल तरु एक उपाड़े। बेरथ कयल लंकेश कुमारे॥
रहल महाभट ओकरा संगे। धरि धरि कपि मर्दथि निज अंगे॥३॥
भावार्थ:- ओ एक बहुत पैघ गाछ उखाड़ि लेलनि आर (ओकर प्रहार सँ) लंकेश्वर रावणक पुत्र मेघनाद केँ बिना रथ केँ कय देलनि। (रथ केँ तोड़िकय ओकरा बेरथ कय देलनि।) ओकरा संग जे बड़का-बड़का योद्धा छल ओकरो पकड़ि-पकड़िकय हनुमान्‌जी अपन शरीर सँ मसलय लगलाह॥३॥
सबकेँ ढालि ओकरा पर छुटला। मानू भिड़ल गजराज ओ युगला॥
मुक्का मारि चढ़े तरु जाय। ताहि एक क्षण मुरुछा आय॥४॥
भावार्थ:- ओकरा सबकेँ मारिकय फेर मेघनाद सँ लड़य लगलाह। (लड़ैत ओ एहेन बुझाइत छलाह)मानू दू गजराज (श्रेष्ठ हाथी) भिड़ गेल हो। हनुमान्‌जी ओकरा एक मुक्का मारिकय वृक्ष पर जा चढ़लाह। ओकरा क्षणभरिक लेल मूर्च्छा आबि गेलैक॥४॥
उठि बहुरि कयल बहु माया। जीति न सकय प्रभंजन जाया॥५॥
भावार्थ:- फेर उठिकय ओ बहुते माया रचौलक, परंतु पवन केर पुत्र ओकरा सँ जीतल नहि जाइत छथि॥५॥
दोहा :
ब्रह्म अस्त्र ओ साधलक कपि मन कयल विचार।
जौँ ने ब्रह्मसर मानैछी महिमा मिटत अपार॥१९॥
भावार्थ:- अंत मे ओ ब्रह्मास्त्र केर संधान (प्रयोग) कयलक, तखन हनुमान्‌जी मन मे विचार कयलथि जे यदि ब्रह्मास्त्र केँ नहि मानैत छी तऽ एकर अपार महिमा मेटा जायत॥१९॥
चौपाई :
ब्रह्मबाण कपि केँ ओ मारलक। खसितो स्वयं कपि कते संहारलक॥
ओ देखलक कपि मुरुछित भऽगेल। नागपाश सँ बान्हिकय लऽगेल॥१॥
भावार्थ:- ओ हनुमान्‌जी केँ ब्रह्मबाण मारलक, (जेकरा लगिते ओ गाछ सँ नीचाँ खसि पड़लाह), मुदा खसितो समय सेहो ओ बहुते रास सेना केँ मारि देलनि। जखन ओ देखलक जे हनुमान्‌जी मूर्छित भऽ गेला अछि, तखन ओ हुनका नागपाश सँ बान्हिकय लय गेल॥१॥
जिनक नाम जपि सुनू भवानी। भव बंधन काटय नर ज्ञानी॥
तिनक दूत कि बंध तर आबथि। प्रभु काज लेल कपि बन्हाबथि॥२॥
भावार्थ:- (शिवजी कहैत छथिन -) हे भवानी सुनू, जिनकर नाम जपिकय ज्ञानी (विवेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण) केर बंधन केँ काटि दैत छथि, हुनकर दूत कहूँ बंधन मे आबि सकैत छथि? मुदा प्रभु केर कार्य वास्ते हनुमान्‌जी स्वयं अपना केँ बन्हबा लेलनि॥२॥
कपि बंधन सुनि निशिचर दौड़ल। कौतुक लेल सभा सब आयल॥
दसमुख सभा देखय कपि जाइ। कहि न जाइ किछु अति प्रभुताइ॥३॥
भावार्थ:- बंदर केर बान्हल जेबाक बात सुनिकय राक्षस सब दौड़ल आर कौतुक लेल (तमाशा देखबाक लेल) सब सभा मे आयल। हनुमान्‌जी जाय केँ रावणक सभा देखलथि। ओकर अत्यंत प्रभुता (ऐश्वर्य) किछु कहल नहि जाइत अछि॥३॥
कर जोड़ल सुर दिसिप विनीता। भृकुटि विलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन शंका। जेना सर्प बीच गरुड़ अशंका॥४॥
भावार्थ:- देवता और दिक्पाल हाथ जोड़ि बड़ा नम्रताक संग भयभीत भेल सब रावणक भौं ताकि रहल छलाह। (ओकर रुख देखि रहल छथि) ओकर एहेन प्रताप देखिकय पर्यन्त हनुमान्‌जीक मन मे कनिकबो डर नहि भेलनि। ओ एहेन निःशंक ठाढ़ रहला जेना साँपक समूह मे गरुड़ निःशंक-निर्भय रहैत अछि॥४॥

हनुमान्‌-रावण संवाद