मैथिल ब्राह्मण समुदायक कल्याण आवश्यक छैक

 
धार्मिक महत्वक कतेको गूढ बात (रहस्य, यथा मंत्र अथवा साधनाक कतेको उपाय आदि) सिर्फ सुपात्र केँ बतेबाक चाही – ई सिद्धान्त हमहुँ-अहाँ बेर-बेर सुनैत होयब। एतय सुपात्रक मतलब भेल जे जाहि सज्जन (व्यक्ति) केँ स्वयं एहि तरहक ज्ञानोपदेश ग्रहण करबाक इच्छा आ उत्कंठा (जिज्ञासा) आदि हो। बाकी केकरो लेल एहि तरहक महत्वपूर्ण आ उपयोगी शक्ति-स्रोतक खासे उपयोगिता त नहिये, दुरुपयोग करब संभव होइत छैक।
 
आजुक एकटा स्वाध्यायक मर्म सोझाँ आयल अछि जे जखन याज्ञवल्क्य द्वारा भरद्वाज ऋषि केँ रामचरितमानसक वर्णन क्रम मे कहल गेल अछि।
 
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥३॥
 
शिवजीक चरण कमल मे जिनकर प्रीति नहि अछि, ओ श्री रामचन्द्रजी केँ सपनहुँ मे नीक नहि लगैछ। विश्वनाथ श्री शिवजीक चरण मे निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम भेनाय यैह रामभक्त केर लक्षण थिक॥३॥
 
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥४॥
 
शिवजीक समान रघुनाथजी (केर भक्ति) केर व्रत धारण करयवला के अछि? जे बिना कोनो पाप केर सती समान स्त्री (पत्नी) केँ त्यागि देलाह आर प्रतिज्ञा कयकेँ श्री रघुनाथजी केर भक्ति केँ देखा देलनि। हे भाइ! श्री रामचन्द्रजी केँ शिवजीक समान आर के प्यारा अछि?॥४॥
 
दोहा :
प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥१०४॥
 
हम (याज्ञवल्क्य) पहिनहि शिवजी केर चरित्र कहिकय अहाँक (भरद्वाज ऋषिक) भेद बुझि गेलहुँ। अहाँ श्री रामचन्द्रजी केर पवित्र सेवक छी और समस्त दोषादि सँ रहित छी॥१०४॥
 
ई प्रसंग रामचरितमानस केर बालकाण्ड मे तखन आयल जखन याज्ञवल्क्य ऋषि शिव ओ सतीक प्रसंग – सती द्वारा श्रीरामक परीक्षा लेनाय आर तदोपरान्त शिवजी द्वारा हुनका माँ सीताक रूप धरबाक कारण मानसिक संकल्प संग पत्नीक रूप मे परित्याग करबाक कठोर संकल्प लेबाक बात, पुनः सती द्वारा पिता दक्ष ओतय यज्ञ मे भाग लेबाक आग्रह पर हुनका बुझेनाय आ जिद्द पर जाय देनाय जतय जाय सती स्वयं केँ शिवजीक भाग यज्ञ मे नहि देखि स्वयं केँ अग्निकुन्ड मे समर्पित (चढा देबाक) घटना घटल, फेर पार्वतीक रूप मे हुनकर जन्म आ शिव-पार्वती विवाहक प्रसंग सब सुनायल गेल तदोपरान्त भरद्वाज ऋषिक भाव-विह्वल आ भक्ति आह्लादित अवस्था देखलथि आर उपरोक्त भाव व्यक्त कयलथि।
 
धार्मिक-आध्यात्मिक आख्यान ग्रहण करबाक पात्रता सच मे सभक पास नहि भेटत। एहि जीवन मे बहुतो व्यक्ति एहेन अछि जेकरा भौतिक संसार छोड़ि आन कोनो शक्ति वा अस्तित्व पर विश्वास नहि छैक। यदा-कदा प्रकृतिक विस्मयकारी लीला सब देखि ओ सब दुविधा मे फँसैत अवश्य अछि, लेकिन तेकरा प्रकृतिक रूटीन क्रियाकलाप बुझि “ईश्वरसत्ता” आ “परमात्माक सर्वोपरि अस्तित्व” आदि मे ओ सब नहि फँसय चाहैत अछि। सीताराम वा गौरीशंकर वा आनहि कोनो देवी-देवता (हिन्दू धर्म वा आन धर्मक अनुसार) आदि मे ओ विश्वास करय लेल कहियो तैयार नहि होइत अछि। आब जँ ओहेन लोक केँ अहाँ सीताराम भगवानक लीला आ माहात्म्य आदिक वर्णने करब त ओकरा लेल ओ बात सब कतेक ग्राह्य होयत से स्वतः बुझय योग्य बात थिक। ताहि सँ पात्र-अपात्रक विचार होयब बहुत आवश्यक अछि। लेकिन एक लेखक सदैव अपन विचार यथारूप मे राखि दैछ, ओ कतेक केकरा ग्राह्य वा स्वीकार्य होयत से पाठक अपन विचार आ विवेक सँ स्वयं निर्णय करैत अछि।
 
यैह सिद्धान्त यदा-कदा सामाजिक क्रियाकलाप-गतिविधि मे सेहो लगैत छैक। हम-अहाँ कोनो एकटा विजन (दृष्टि) अपन समाजक बेहतरी लेल देबैक त ओकरा आम समाजक लोक अपन-अपन दृष्टि सँ देखत। ओकरा स्वीकार वा प्रतिकार अपना ढंग सँ करत। अपन मिथिला मे कइएक बात आइ ओझरा गेल अछि। ओझरी केँ सोझराबय लेल हम-अहाँ निरन्तर प्रयासरत छी। संभवतः मिथिला बाँचय मे सफल होयत। हालांकि बहुत रास बात डरावना अछि। लेकिन एकटा अकाट्य प्रमाण ई छैक जे मिथिला युगों-युगों सँ बाँचल अछि, आगुओ ताहि लेल बाँचत। हम-अहाँ अपन-अपन भूमिका मे लागल छी। समाज केर नीक-बेजा होइत रहतय। नीक योगदान केँ सदिखन नीके कहल जायत। गलती केँ सेहो लोक मोन पाड़ैत अछि, लेकिन ओकरा दूसबाक परम्परा ततबे विद्यमान छैक। अस्तु! मैथिल ब्राह्मण वैवाहिक परिचय सभाक मीमांसाक क्रम मे ई सब बात सोझाँ आयल अछि। वृहत् स्तर पर एहि बौद्धिक वर्ग-समुदाय (जाति) केर कल्याण होयब जरूरी छैक। एखन एतबे!
 
हरिः हरः!!