विधवा नारी केर विभिन्न अधिकार पर बंधनक औचित्य की?

विचार

– डा. लीना चौधरी

विधवा ई शब्द अपनेआप मे सब किछ कहि दैत अछि। स्त्रीक स्थिति मात्र सांस लैत शरीर केर रहि जाइत छैक। जीवन सँ रंग, स्वाद, सम्मान सब छीन लैछ ई समाज ओहि बेचारी केर। ओकरा ओहि बात केर सजा देल जाइत छैक जाहि मे ओकर कोनो हाथ नहि होइछ। ई समाज ईहो सोचबाक प्रयास नहि करैत छैक जे भला ओ स्त्री अपन जिन्दगी सँ रंग और संबल, सम्मान, सब सुख-सुविधा केँ किया हँटाबय चाहत। पुरुष जखन पत्नी केर मृत्यु केर जिम्मेदार नहि तँ फेर स्त्री केना पति केर मृत्युक कारण भऽ जाइछ? एक घर छोड़ि ओ वैह पुरुष केर हाथ पकड़ि नव घर में प्रवेश करैत अछि। ताहि आलंबन केँ केना ओ कोनो तरहें नोकसान करय लेल सोचत? पर हाय रे हमर स्वार्थी समाज! कखनो एक क्षण केर लेल सोचय के जरूरत नहि बुझैत अछि… कियैक सोचत… ओ तऽ चाहैत अछि जे ऐनहिते दबा कय राखी और ओहि निरीह जीव केँ सब हक छीन ली। यैह बहन्ने ओकर जमीन जायदाद सेहो हथिया ली। जड़ि में जाउ तऽ ई सब परंपरा ओकर हक केँ छीनबाक लेल बनायल गेल स्पष्ट भऽ जायत। पुरुषक पुनःविवाह लेल पूरा अधिकार देल गेल अछि, मुदा स्त्री केर दोसर विवाह पर बंधेज अछि। जखन कि एक्के माटि-पानि सँ भगवान दुनू जीव पुरुष आ नारी केँ बनौलनि, फेर ई अंतर समाज कियैक कय रहल अछि? भगवान दुनू केँ एक दोसरक पुरक बनौलनि, मुदा मनुष्य अपन स्वार्थ लेल स्त्री केँ दोयम दर्जाक बनाकय अपन मतलब मात्र सिद्ध केलक, से कतेक जायज? एकर जबाब पाठक वर्ग केर विचार पर छोड़ि रहल छी। 
बाबा केर गेलाक बाद दादीक जिन्दगी सँ सब रंग हँटिकय मात्र उज्जर वस्त्र रहि गेल छलन्हि। ओ हमेशा उजरे रंगक साड़ी पहिरैत छलीह। कखनहुँ नीला त कखनहुँ हरियर कोर वला साड़ी…! मुदा जेना-जेना हम सब पैघ होवय लगलहुँ, हमरा सभ केँ ई बात बहुत अखरय लागल छल। बाबूजी केँ सेहो नहि नीक लगैन परंच ओ धाखे दादी केँ किछु कहथिन नहि। हम स्वभावहि सँ परंपरा-विरोधी रहलहुँ। एहि बात सँ घर मे सब परेशान रहथि सिवाये बाबूजी केर। सब साल जेकाँ ओहि साल सेहो दुर्गा पूजा वास्ते सभक कपड़ा कीना रहल छल। दादी लेल जखन साड़ी पसीन करय लगलाह बाबूजी तऽ हम सब उजरे रंग पर चौड़गर पारि वला साड़ी पसीन केलहुँ, सेहो लाल रंग सँ मिलैत पारि वला। ओ लय केँ जखन हमरा लोकनि दादी केँ देखेलियनि तऽ ओ कहली जे हम आब ई सब कोना पहिरब…, मुदा हमहूँ सब बाबूजी केँ मना लेने रही दादी केँ मनेबाक लेल, त ओ कहलखिन जे “मां, कियैक नहि पहिरब? बच्चो सभ केर मोन छैक आ हमरो नीक लागत।” दादी बाबूजीक बात कखनहुँ नहि कटैत छलीह। ओ कहलखिन जे ठीक अछि बौआ, अहाँ केँ मोन अछि तखन ठीक छैक। हमर दादीक जिन्दगी मे ओहि साल सँ हम सब रंग अननाइ शुरू केलउं चाहे कनिये पर शुरुआत भेल। ओहि साल हमर सभक नानाजी सेहो आयल छलाह हमरा सभ लग। ओ बहुत कट्टर पुरान सोचक लोक छलाह। हमर दादी केर ओहि साड़ी मे देखिकय कहला “विधवा केँ रंगीन परिधान नहि पहिरेबाक चाही।” लेकिन हमर सभक संपूर्ण परिवार हुनकर ओहि विचार केँ नकारि देलक आर दादी केँ फेर कहियो पूर्ण सफेद साड़ी नहि पहिरय देलक।