कि अन्तर अछि ताहि दिन आर आइ मे – वैचारिक मंथन

तिलबिखनी, फुलिया आ सुशिलिया
– प्रवीण नारायण चौधरी
 
“धोंछी! निरासी! गय अरगासनवाली, टाटिये पर दय एबौ।” – तिलबिखनी तामसे बिलबिलाइत एक चोत गोबर जेकरा पर आंगूर देखाकय ओ छेकि लेने रहय से जे दोसर अपन पथिया मे उठा लेलक ताहि पर बाजि उठल। गाम-समाज मे यैह अनुशासन चलैत छैक जे गोबर बिछय लेल एकटा निश्चित समय मे जखन गामक श्रमजीवी समाजक बच्चा सब छिट्टा-पथिया लय केँ जायल करय त अपन-अपन दृष्टि जाहि ढेरी पर पड़ि गेल आ पहिले बाजि देलक वैह उठायत, ओ ढेरी दोसर नहि उठा सकैत छल। लेकिन आइ तिलबिखनी केर देखेलहा ढेरी फुलिया उठा लेलकैक, ताहि पर ओकरा गारि सँ ओजन्ना पहुँचेने जा रहल छल तिलबिखनी। अन्तिम मे विवाद केँ शान्त करैत तेसर संगी सुशिलिया कहलकैक जे ‘गय, तहूँ न तिलबिखनी… एक चोत गोबर लय एतेक अगिया-बेताल भऽ गेलें… ई ले, हमरे छिट्टा मे सँ एक चोत जतेक गोबर अपना मे लय ले।’ सुशिलियाक एहि सुशील व्यवहार पर तिलबिखनीक तामश त शान्त भेबे केलैक, गोबर उठेनिहाइर फुलिया सेहो लाजे लाल भऽ गेल आ तुरन्त अपन माथ पर सँ छिट्टा उतारि, ओकर त्याग आ शिक्षाक बदला चुकबैत अपन छिट्टा मे सँ दोब्बर गोबर सुशिलिया केँ लौटा देलक।
 
आब गामहु-समाज मे एहि तरहक वातावरण नहि रहि गेल छैक। गोबर बिछब त दूर लोक मालजाल तक पोसय सँ परहेज करैत अछि। घर मे काज के करतैक, के काटत घास, के चराओत मवेशी, के कुट्टी काटत, के सानी देत, के दुहत…. बहुत रास बात छैक। मिथिलाक जीवनशैली मे आत्मनिर्भरताक जे झलक पूर्व मे घरे-घर अपन खेती-गृहस्थी आ मेहनत-मजदूरीक छल तेकर स्वरूप आइ एकदम अलग छैक। आब तिलबिखनीक विवाह भऽ गेलैक, ओकर ३ बेटा-बेटी, तीनू परदेश मे रहैत छैक। तिलबिखनी सेठानी बनि गेल अछि। ओ कहियो बड़का बेटा लग लुधियाना मे, त कहियो छोटका बेटा लग सुरत मे, कहियो दिल्लीक बुरारी मे बेटी-जमाय जे अपन घर बनाकय फर्स्ट क्लास व्यवस्था मे छैक से तेकरा लग। ओकर संगी-साथी फुलिया, सुशिलिया व अन्य सेहो सब एहिना देश-विदेशक कोण-कोण मे प्रवास-परदेशिया जीवन बितबैत ओकर सभक सन्तान केर भरोसे अछि। गाम-घरक परिवेश ओकरो सभक लेल इतिहासक एकटा अध्याय मात्र छैक। विचारिकय देखल जाय त ओ समय आ आजुक समय मे किछु अन्तर आ किछु समानता देखायत। अन्तर ई जे आब कियो भूखल नहि सुतैत अछि आर आब ओकरा सभक लेल गोबर बिछनाय नीच कर्म थिक। समानता ई जे ताहि दिनक ओ संघर्ष आजुक रणे-बने छिछियाइतो जीवन मे ओ शान्ति आ सुख नसीब मे नहि दय रहलैक अछि। पाठक पर छोड़ि दैत छी जे नीक कोन आ बेजा कोन, ई निर्णय अपन-अपन आत्मा सँ सब कियो स्वयं करथि।
 
हरिः हरः!!