मानस पूजा आ एकर सारगर्भित महत्व (सभक लेल पढनाय जरूरी)

स्वाध्याय लेख

– प्रवीण नारायण चौधरी

मानस पूजा आ एकर महत्व

भगवत्पूजन केर विधान अनेक अछि। साधारणतया जल, अक्षत, जौ, तिल, दुभि, फूल, बेलपत्र, चन्दन, नैवेद्य, धूप, दीप, ताम्बूल (पान-सुपारी), दक्षिणा, आदि द्रव्य (उपचार) सँ अलग-अलग मंत्र पढिकय भगवान् पर चढेबाक (समर्पण) करबाक नियम हम-अहाँ देखिते छी। चाहे कोनो पूजा हो, सत्यनारायण भगवानक पूजा हो, देवी दुर्गा केर पूजा हो, गौरी-गणेश, लक्ष्मी-गणेश, महादेव पूजन – लगभग सभ पूजा मे यैह पंचोपचार, षोडशोपचार द्रव्य सँ पूजा-पाठ विधिपूर्वक कयल जाइछ। लेकिन एहेन विध-विधान सँ हर दिन पूजा हर व्यक्ति लेल संभव नहि भऽ पबैत अछि। तथापि, भक्तमान् लोक केँ चाही जे ओ पूजा-पाठ अवश्य करय, सेहो नित्य करय। शास्त्र मे कहल गेल अछि जे प्रत्येक दिन अथवा प्रत्येक क्षण जँ पूजा करय लेल चाहैत होइ आ सब विध-विधान पूरा करय मे कठिनाई बुझाइत हो त “मानस पूजा” अवश्य कयल करू। मनःकल्पित जँ एकटा फूल भगवान् केँ अर्पित करब तऽ करोड़ों बाहरी फूल चढेबाक बराबर होयत। एहि तरहें चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य सेहो भगवान् केँ मनहि सँ कल्पना कय केँ अर्पण करब तँ यथार्थ वस्तुगत अर्पण सँ करोड़ों गुना अधिक संतोष प्रदान करत। ताहि सँ मानस पूजा अत्यधिक अपेक्षित अछि।
 
कहबी सेहो सुनिते छी जे भगवान् केँ कोनो वस्तुक आवश्यकता नहि छन्हि, ई केवल हम-अहाँ अपन आत्मीय सन्तुष्टि लेल हमरहि-अहाँ सहित हमरा सभक परिवेशक कण-कण आ हर-जन-गण-मन मे बसल भगवान् केर सन्तुष्टिक लेल वर्णित एकटा श्रेष्ठ-विज्ञजन-निर्दिष्ट उपाय थिक ‘पूजा-पाठ’, एकर विध-विधान, आदि। कतेक लोक एकरा ‘कर्मकांड’ कहिकय आलोचना सेहो करैत छथि। लेकिन, प्राकृतिक न्याय कहैत अछि जे जँ अहाँ स्वयं केँ, स्वयं संग-संग अपन परिवेशक हर मानव-सहयोगी व्यक्ति, आवोहवा, वातावरण, गाछ-वृक्ष, जीव-निर्जीव सब केँ सन्तोष प्रदान करब तऽ वैह ‘परमात्मा-पूजन’ होयत। पूजा-पाठ केला सँ अहाँक भीतर एक तरहक आत्मबल भेटत, आत्मविश्वास बढत आर अन्धकार सँ प्रकाशक दिशा मे स्वयं केँ गमन करैत अनुभव करब। अतः वस्तु आ विभिन्न उपचार आदि सँ अनेकों सिद्ध-निषिद्ध किंवा जायज-नाजायज आदिक द्वंद्व मे फँसने बिना जँ भगवान् केर पूजा-पाठ मानसिक परिकल्पनाक संग करब तँ ओ ‘सर्वोत्तम’ मानल गेल अछि। आउ, आइ एहि मानस-पूजा लेल निर्दिष्ट सुन्दर मंत्र आ ओकर भाव पर विचार करैत छी। एतय पुनः मंत्र सब व्यक्ति सँ स्मृति मे राखब, उच्चारण करब, अभ्यास करब, निश्चितप्राय संभव नहि अछि। यैह कारण कतहु-कतहु कहल जाइछ जे मंत्र केवल सुशिक्षित-सुसंस्कृत आ व्याकरणक सब नियम सँ सुपरिचित व्यक्ति लेल मात्र उच्चारण कयल जाय। कारण मंत्र मे यदा-कदा उल्टा-सीधा भाव प्रकट होयत तथा एक परमसत्ताधारी परमपिता परमेश्वर छोड़ि अन्य देवी-देवता ओकर असली भाव केँ नहि पकड़ि सकबाक खतरा रहैत छैक। ताहि सँ मंत्र हम एतय लिखि रहल छी, लेकिन सक्षम-सामर्थ्यवान् जे होइ वैह एकर अवलम्बन करब, नहि तँ केवल भाव सँ भगवान् केर पूजा करब, मानसिक पूजा करब, बस!
 

मानस पूजाक भावः

 
१. भगवान् हमर जन्मदाता, पालनहार आ सब दुःख-सुख मे संग देनिहार सर्वप्रिय संगी छथि। बिना भगवान् हमर कोनो अस्तित्व अकल्पनीय अछि। हम जे छी से हुनकहि कारणे, हुनकहि आज्ञानुसार आ हमर सब किछु हुनकहि अनुसार चलयवला अछि। ताहि लेल हमर धर्म बनैत अछि जे हुनका सदिखन स्मरण करैत अपन जीवनक वांछित कर्म-कर्तव्य निर्वाह करी।
 
(ई भाव थिकैक अपना केँ भगवान् संग अनुकूलताक स्थिति मे आनब!)
 
२. परमपिता परमेश्वर – हमर रक्षक-पोषक तथा योगक्षेम केर एकमात्र स्रोत केँ प्रसन्न रखबाक लेल हम विशेष प्रार्थना करैत छी। ई बुझैत जे हमरा सँ कोनो गलती नहि भेल, पाप नहि भेल, असत्य नहि बजलहुँ, मक्कारी-झूठा-धोखेबाजी-दोसरक अहित आदि मे नहि फँसलहुँ, हम भगवान् केर संतान हुनकहि जेकाँ सभक लेल समदरसी बनि सब काज केलहुँ – एहि तरहें परमपिता केँ प्रसन्न रखैत एखन विधिवत् हुनकर पूजा करब।
 
(ई भाव भेल अपना केँ भगवान् केर सोझाँ प्रस्तुत करबाक योग्यता ग्रहण केनाय। जँ पापाचार भेल हो, तखन पहिने अपन पापपूर्ण विचार लेल प्रायश्चित करब, गलतीक क्षमा लेल प्रार्थना करब सेहो आवश्यक अछि।)
 
३. उपरोक्त दुइ स्थिति उपरान्त भगवान् केँ सोझाँ देखय लागब। आब भगवान् सँ सम्बोधित होइत – मुक्तामणि सँ मण्डित कय स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान करबैत – स्वर्गलोकक मन्दाकिनी गङ्गाक जल सँ अपन आराध्य केँ स्नान करबैत, कामधेनु गौ केर दुग्ध सँ पञ्चामृतक निर्माण करैत – वस्त्राभूषण दिव्य-अलौकिक पहिराबैत – पृथ्वीरूपी गन्ध केर अनुलेपन करैत – अपन आराध्य लेल कुबेरक पुष्पवाटिका सँ स्वर्णकमलपुष्प तोड़िकय भगवान् केँ दैत – भावना सँ वायुरूपी धूप, अग्निरूपी दीपक तथा अमृतरूपी नैवेद्य हुनका चढाउ। एहि तरहें तीनू लोकक सम्पूर्ण वस्तु सब उपचार सच्चिदानन्दघन परमात्म-प्रभु केर चरण मे भावना सँ अर्पण करू।
 
यैह थिक ‘मानस-पूजा’। भगवान् सँ बेर-बेर अपन मोनक बात करू। अहाँ केँ जे इच्छा अछि, अहाँ एहि मानवलोक, पृथ्वीलोक केर भलाई लेल जे नीक करय लेल कल्पना करैत छी से सब हुनका सँ सुनाउ, प्रार्थना करू। सभक कल्याण करय लेल शक्ति मांगू।
 
कतेको लोक ‘उल्टा शक्ति’ सेहो मंगैत अछि। लेकिन ओ ‘उल्टा शक्ति’ अन्ततोगत्वा ओहि साधक केँ सेहो ‘उल्टे गति’ मे टांगि दैत छैक। ताहि लेल उल्टा दिशा मे कोनो तरहक साधना सँ कियो गोटे अपन कमायल धर्म केँ अपनहि सँ ध्वस्त नहि करू। इतिहास मे एहेन उदाहरण भरल पड़ल अछि। शिशुपाल सेहो बलशाली छलाह, लेकिन कृष्ण केँ गरियेनाय शुरू कयलनि आ कृष्ण हुनकर १०० अपराध लेल क्षमा पहिने दय देने छलखिन… मुदा ओ शिशुपाल १०१वाँ अपराध सेहो कय गेल…. आर फेर…. बुझिते छियैक। रावण कम बलशाली नहि छल। लेकिन मोन एतेक बढि गेलैक जे अन्त मे जानकी पराम्बा केँ पर्यन्त अपहरण कय अपन मोनक उल्टा शक्ति सँ प्रेरित ओ उल्टा दिशा मे बहि गेल। परिणाम सब केँ बुझल अछि।
 

आउ, मंत्र सहित ‘मानस-पूजा’ करबाक लेल निम्न बात केँ देखूः

 
१. उपरोक्त वर्णित प्रक्रिया (१) आ (२) यथावत् करब।
 
२. आब जखन भगवान् केँ सोझाँ देखब आरम्भ भऽ गेल, तखन हुनका मंत्र ओ भावना दुनू संग एना पूजा करू, भावना लेल उपरोक्त (३) विन्दु केँ मनन करू।
 
*ॐ लं पृथिव्यात्मकं गन्धं परिकल्पयामि। (प्रभो! हम पृथ्वीरूप गन्ध (चन्दन) अहाँ केँ अर्पित करैत छी।)
 
*ॐ हं आकाशात्मकं पुष्पं परिकल्पयामि। (प्रभो! हम आकाशरूप पुष्प अपने केँ अर्पित करैत छी।)
 
*ॐ यं वाय्वात्मकं धूपं परिकल्पयामि। (प्रभो! हम वायुदेव केर रूप मे धूप अपने केँ अर्पित करैत छी।)
 
*ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं दर्शयामि। (प्रभो! हम अग्निदेव केर रूप मे दीपक अपने केँ अर्पित करैत छी।)
 
*ॐ वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि। (प्रभो! हम अमृत केर समान नैवेद्य अपने केँ निवेदन करैत छी।)
 
*ॐ सौं सर्वात्मकं सर्वोपचारं समर्पयामि। (प्रभो! हम सर्वात्मा केर रूप मे संसारक सब उपचार केँ अपनेक चरण मे अर्पित करैत छी।)
 
एहि सर्वोच्च भाव मे लीन भऽ कय मंत्रोच्चारणक संग भावनापूर्वक मानसपूजा कयल जाइछ।
 
मानस पूजा सँ चित्त एकाग्र ओ सरस भऽ जाइत अछि, एहि सँ बाह्य पूजा मे सेहो रस भेटय लगैत अछि। ई जरूर अपनेबाक चाही।
 
(मंत्र स्रोतः नित्यकर्म-पूजा प्रकाश)
 
हरिः हरः!!