सन्ध्या-तर्पण केर सम्पूर्ण मिथिला पद्धति

मैथिली जिन्दाबाद पर सन्ध्या-तर्पण पद्धति उपलब्ध

सन्ध्या-तर्पण

आउ, आइ संध्या-तर्पण करब शिक्षा ग्रहण करी। प्रत्येक द्विज लेल अनिवार्य कहल गेल अछि जे कम सँ कम एक संध्या यानि भोर, दुपहर आ साँझ तीन बेरुक संध्या मे सँ अनिवार्यतः एक संध्या अवश्यक करबाक चाही। तहिना, अपन पितर सभ केँ हुनक गोत्र व नामक संग जलार्घ्य यानि कि तर्पण आवश्यक कहल गेल अछि। कतेक लोक पिताक जिबैत तर्पण नहि करैत छथि, ओना हमरा हिसाबे स्वर्गीय पितामह, प्रपितामह, वृद्धप्रपितामह केर पिताक जिबितो कयल जा सकैत अछि। तहिना माताक जीबिते पितामही, प्रपितामही, वृद्धप्रपितामही केँ तर्पण करी। ओम्हर मातामह, प्रमातामह, वृद्धप्रमातामह, मातामही, प्रमातामही, वृद्धप्रमातामही केर तर्पण संग-संग विभिन्न बन्धु-बान्धव आ सगा-सम्बन्धी सहित कोनो परिचित खास स्वर्गीय आत्माक तर्पण लेल अपन कर्म करैत जलार्घ्य विधिवत् प्रदान करी। विदित हो जे आस्था-विश्वास पर आधारित कर्मकाण्ड सँ आत्मिक सुख केर प्राप्ति होएछ। बेचैनी आ तड़प सँ मुक्ति लेल सदैव अपन पितर केँ प्रसन्न करबाक आदत हमरा लोकनि केँ बिना गलती कएने डालि लेबाक चाही।
 
संध्या-तर्पण पद्धति विभिन्न स्थान पर अलग-अलग ढंग सँ वर्णित देखल। परञ्च मिथिला पद्धतिक सुनामी जानकार पंडित रामचन्द्र झा द्वारा सम्पादित आ चौखम्बा प्रकाशन काशी द्वारा प्रकाशित ‘वाजसनेयी सन्ध्या-तर्पण पद्धति’ अनुरूप करबाक गुरुवर केर आदेश अनुरूप एतय ओही पोथीक बात-विचार अपने सभक सुविधा लेल राखि रहल छी। एकर प्रिन्ट-आउट लय समुचित समय खर्च करैत ई अभ्यास बनाबी, यैह निवेदनक संग मैथिली जिन्दाबाद पर हम प्रवीण ई पोस्ट कय रहल छी।
 

अथ वाजसनेयिनां सन्ध्यातर्पणपद्धतिः

अथ सन्ध्याविधिः

कुशक पवित्री पहिरि गायत्री मन्त्र सँ शिखा बान्हि ईशान कोणाऽभिमुख भय ३ बेरि आचमन कय हृदय, नाभि, ओ दुनू कान्हक स्पर्श (श्रोत्रबन्धन) कय दाहिना हाथ मे जल लय –
 
अघमर्षण सुक्तस्या घमर्षण ऋषिरनुष्टुप्‌च्छन्दो भाववृत्तो देवता अश्वमेधा वभृथे विनियोगः।
 
ॐ ऋतञ्च सत्यञ्चा-भीद्धातपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्राऽअर्णवः। समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोऽअजायत। अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी। सूर्या-चन्द्र-मसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवञ्च पृथिवीञ्चाऽन्तरिक्षमथो स्वः॥
 
ई मन्त्र पढि ३ बेरि आचमन कय –
 
ॐ आपोमामभिरक्षन्तु।
 
एहि मन्त्रें जल लय शरीरक वेष्टन कय बद्धाञ्जलि भय ऋष्यादिक स्मरण करी –
 
ॐकारस्य ब्रह्मऋषिर्गायत्रीच्छन्दोऽग्निर्देवता शुक्लो वर्णः सर्वकर्मारम्भे विनियोगः।
 
सप्तव्याहृतीनां प्रजापति-र्ऋषि-र्गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्-बृहती-पङ्क्ति-त्रिष्टुब्जगत्यश्छन्दांस्यग्नि-वाय्वादित्य-बृहस्पति-वरुणेन्द्र-विश्वेदेवा देवता अनादिष्ट प्रायश्चिते प्राणायामे विनियोगः।
 
शिरसः प्रजापति-ऋषिर्ब्रह्मा-अग्निवायु-सूर्या देवता यजुः प्राणायामे विनियोगः।
 
तदुत्तर प्राणायाम करी। विधि यथा – दाहिना हाथक औंठा सँ नाकक दाहिना पूड़ा के दाबि –
 
ॐ भुः, ॐ भुवः, ॐ स्वः, ॐ महः, ॐ जनः, ॐ तपः, ॐ सत्यम्, ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपोज्योतिरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्॥
 
ई मन्त्र ३ बेरि पढैत वाम पूड़ाक द्वारा वायु ग्रहण करैत नाभि मे श्यामवर्ण चतुर्भुज विष्णुक ध्यान करैत ‘पूरक’ नामक प्राणायाम कय अनामिका से वाम पूड़ा केँ दाबि उक्त मंत्र ३ बेरि पढैत वायुक धारण कयने हृदय मे कमलासनस्थ रक्तवर्ण चतुर्भुज ब्रह्माक ध्यान करैत ‘कुम्भक’ नामक प्राणायाम करी। तदुत्तर दहिन पूड़ा सँ अङ्गुष्ठा छोड़ाय ३ बेरि उक्त मंत्र पढैत क्रमशः श्वासक त्याग करैत ललाट मे शुक्लवर्ण त्रिनेत्र शिवक ध्यान करैत ‘रेचक’ प्राणायाम करी। तदुत्तर –
 
१. प्रातःकाल – अधोलिखित मंत्र पढि के ३ बेरि आचमन करी –
 
सूर्यश्चमेति ब्रह्मऋषिः प्रकृतिश्छन्दः सूर्यो देवता प्रातराचमने विनियोगः।
 
ॐ सूर्य्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्तां यद्रात्रया पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्ना रात्रिश्तदवलम्पतु यत्किञ्चिद् दुरितं मयिऽइद-महम्मा-ममृतयोनौ सूर्य्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा॥
 
२. मध्याह्नकाल – अधोलिखित मन्त्र पढिकेँ ३ बेरि आचमन करी –
 
आपः पुनन्त्विति विष्णुर्ऋषिर्नुष्टुपच्छन्द आपो देवता मध्याह्न आचमने विनियोगः।
 
ॐ आपः पुनन्तु पृथिवीं पृथ्वी पूता पुनातु माम्। पुनन्तु ब्रह्मणस्पतिर्ब्रह्मपूता पुनातु माम्॥ यदुच्छिष्टमभोज्यं च यद्वा दुश्चरितं मम सर्वं पुनन्तु मामापोऽहसताश्च प्रतिग्रहग्वंस्वाहा॥
 
३. सायंकाल – अधोलिखित मंत्र पढि केँ ३ बेरि आचमन करी –
 
अग्निश्चमेति रुद्रऋषिः प्रकृतिश्छन्दोऽग्निर्देवता सायमाचमने विनियोगः।
 
ॐ अग्निश्च मामन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्तां यदह्ना पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्नाऽअहस्तदवलुम्पतु यत् किञ्चिद् दुरितं मयि इदम-हम्मामृतयोनौ सत्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा॥
 
तदुत्त वाम हाथ मे जल लय –
 
आपोहिष्ठेत्यादित्र्यृचस्य सिन्धुद्वीप ऋषिर्गायत्रीछन्दः आपोदेवता मार्जने विनियोगः।
 
१. ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुवः। २. ॐ तान ऊर्जे दधातन। ३. ॐ महेरणाय चक्षसे। ४. ॐ यो वः शिवतमो रसः। ५. ॐ तस्य भाजयतेह नः। ६. ॐ उशतीरिव मातरः। ७. ॐ तस्मा अरङ्गमाम वः।
 
एहि सातो मंत्र सँ क्रमिक ७ बेर जलबिन्दुक प्रक्षेप माथ पर कय –
 
ॐ यस्य क्षयाय जिन्वथ।
 
एहि मंत्र केँ पढि एक बेरि नीचां मे जल-बिन्दु केँ फेकि अधोलिखित मंत्र सँ पुनः जलबिन्दु केँ माथ पर फेकी।
 
ॐ आपो जन यथा च नः।
 
तदुत्तर अधोलिखित मंत्र केँ ३ बेरि पढि वाम हाथक शेष जल-बिन्दु केँ ३ बेरि माथ पर फेकी –
 
द्रुपदादिवेति कोकिलो राजपुत्र ऋषिरनुष्टुप्‌छन्दः आपो देवता सौत्रामण्यवभृये विनियोगः। ॐ द्रुपदादिव मुमुचानः स्विन्नः स्नातो मलादिव। पूतं पवित्रेणेवाज्यमापः शुन्धन्तुमैनसः॥
 
तदुत्तर दाहिना हाथ मे जल लय नाकक अग्रभाग मे लगाय –
 
“अघमर्षण…..” (ई मन्त्र पहिने ऊपर मे देल अछि)
 
इत्यादि (१ पृष्ठोक्त) मन्त्र पढि वाम भाग मे हाथक जल केँ प्रक्षेप करी।
 
तदुत्तर अधोलिखित मन्त्र केँ पढि ३ बेरि आचमन करी –
 
अन्तश्चरसीति तिरश्चीन ऋषिरनुष्टुप्‌छन्दः आपो देवता अपामुपस्पर्शने विनियोगः।
 
ॐ अन्तश्चरसि भूतेषु गुहायां विश्वतो मुखः। त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कार आपो ज्योतीरसोऽमृतम्॥ ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्।
 
तदुत्तर ऊठि प्रणवव्याहृति सहित गायत्री मन्त्र सँ सूर्य केँ अर्घ्य दय ठाढे-ठाढ प्रातःकाल पूवमुहें बद्धांजलि भय मध्याह्नकाल ऊर्ध्वबाहु भय तथा सायंकाल पश्चिमाभिमुहें बद्धांजलि भय केँ सूर्योपस्थान करी। तद्यथा –
 
उद्वयमिति हिरण्यस्तूप ऋषिरनुष्टुप्‌छन्दः सूर्यो देवता सूर्योपस्थाने विनियोगः।
 
ॐ उद्वयन्तमसः परिस्वः पश्यन्त उत्तरम्। देवं देवत्रा सूर्यमगन्मज्ज्योतिरुत्तमम्॥
 
उदुत्यमिति प्रस्कण्व ऋषिर्गायत्रीच्छन्दः सूर्यो देवता सूर्योपस्थाने विनियोगः।
 
ॐ उदुत्यञ्जानवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे व्विश्वाय सूर्यम्। चित्रमिति कौत्स ऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दः सूर्योदेवता सूर्योपस्थाने विनियोगः।
 
ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकञ्चक्षुर्मित्रस्य व्वरुणस्यांऽग्नेः। आप्राद्यावा पृथिवी अन्तरिक्षग्वं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च॥
 
तच्चक्षुरिति दध्यङ्गाथर्वण ऋषिरक्षरातीतपुर उष्णिक्‌छन्दः सूर्यो देवता सूर्योपस्थाने विनियोगः।
 
ॐ तच्चक्षुर्द्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतञ्जीवेम शरदःशतग्वं श्रृणुयाम शरदःशतं प्रब्रवाम शरदःशतमदीनाः स्याम शरदःशतं भूयश्च शरदःशतात्॥
 
तदुत्तर अधोलिखित मंत्र सँ यथाक्रम – हृदय, शिर, शिखा, दुहू बाँहि तथा नेत्रक स्पर्श करैत षडङ्न्यास करी –
 
१. ॐ हृदयाय नमः। २. ॐ भूः शिरसे स्वाहा। ३. ॐ भुवः शिखाय वषट्। ४. ॐ स्वः कवचाय हुम्। ५. ॐ भूर्भुवः स्वर्नेत्राभ्यां वौषट्। ६. ॐ भूर्भुवः स्वः अस्त्राय फट्।
 
तदुत्तर अधोलिखित मंत्र सँ ऋषि-आदिक स्मरण करी –
 
ॐकारस्य ब्रह्म-ऋषि र्गायत्रीच्छन्दोऽग्निर्द्देवता सर्वकर्मारम्भे विनियोगः।
 
व्याहृतित्रयस्य प्रजापति-र्ऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांस्यग्नि-वाय्वादित्या देवता जपे विनियोगः। गायत्र्या विश्वामित्र-ऋषिर्गायत्रीच्छन्दः सविता देवता जपे विनियोगः।
 
तदुत्तर कल जोड़ि केँ गायत्रीक ध्यान करी –
 
ॐ श्वेतवर्णा समुद्दिष्टा कौशेय-वसना तथा।
श्वेतैर्विलेपनैः पुष्पै रलङ्कारैश्च शोभिता॥
आदित्य मण्डलान्तस्था ब्रह्मलोकगताऽथवा।
अक्ष-सूत्रधरा देवी पद्मासनगता शुभा॥
 
तदुत्तर अधोलिखित मंत्र सँ गायत्रीक आवाहन तथा उपस्थान करी –
 
तेजोऽसीति देवा ऋषयः शुक्रं दैवतं गायत्रीच्छन्दो गायत्र्यावाहने विनियोगः –
 
ॐ तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि धामनामासि प्रियं देवानामनाधृष्टं देवयजनमसि॥
 
परोरजस इति विमल-ऋषिरनुष्टुप्‌छन्दः परमात्मादेवता गायत्र्युपस्थाने विनियोगः –
 
ॐ गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी-त्रिपदी-चतुष्पद्य पदसि नहि पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शिताय पदाय परोरजसे सावदो मा प्रापत्।
 
ॐ आगच्छ वरदे देवि! त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि!
गायत्रि! च्छन्दसां मातर्जपे मे सन्निधी भव॥ ३ ॥
 
तदुत्तर अधोलिखित गायत्री मन्त्र यथाशक्ति १०, १०८ अथवा १००० बेरि जप करी। गायत्री मन्त्र यथा –
 
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्, ॐ॥
 
तदुत्तर अधोलिखित प्रथम मन्त्र सँ जप-समर्पण कय द्वितीय मन्त्र सँ गायत्री देवीक विसर्जन करी –
 
ॐ गुह्याऽतिगुह्य-गोप्त्री त्वं गृहाणाऽस्मत्-कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि! त्वत्प्रसादान्-महेश्वरि॥१॥
ॐ उत्तरे शिखरे जाते भूम्यां पर्वतवासिनि!
ब्रह्मणा समनुज्ञाते गच्छ देवि! यथासुखम्॥२॥
 
तदुत्तर अधोलिखित मन्त्र सँ प्रातः, मध्याह्न मे पूवमुहें तथा सन्ध्या मे पश्चिम मुहें सूर्य केँ अर्घ दी –
 
ॐ नमो विवस्वते ब्रह्मन् भास्वते विष्णुतेजसे।
जगत्-सवित्रे शुचये सवित्रे कर्मदायिने॥
एषोऽर्घः ॐ भगवते श्री सूर्याय नमः।
 
इति वाजसनेयिनां सन्ध्याविधिः।
 

अथ वाजसनेयिनां तर्पणविधिः

(तर्पणाधिकारी व्यक्ति गायत्री जप सँ पूर्वहिं तर्पण करथि)
 
(१) देवतर्पण, पूर्वाभिमुहें – पूर्वाभिमुख भय, द्विराचम्य, तेकुशा, यव, जल लय – अङ्गुल्यग्रभागात्मक देवतीर्थे पूर्वाग्र तेकुशा पर एक अञ्जलि जल सँ देवतर्पण करी –
 
ॐ ब्रह्मा तृप्यताम्। ॐ विष्णुः तृप्यताम्। ॐ रुद्रः तृप्यताम्। ॐ प्रजापतिः तृप्यताम्।
ॐ देवाः यक्षास्तथा नागाः गन्धर्वाऽपरससोऽसुराः।
क्रूराः सर्पाः सुपर्णाश्च तरवो जम्भकाः खगाः॥
विद्याधरा जलाधाराः तथैवाऽऽकाशगामिनः।
निराधाराश्च ये जीवाः पापेऽधर्मे रताश्च ये।
तेषामाप्यायनायैतद् दीयते सलिलं मया॥
 
(२) सनकादि ऋषितर्पण, उत्तराभिमुहें – तदुत्तर उत्तराभिमुख भय कण्ठावलाम्बित यज्ञोपवित कय कनिष्ठाङ्गुलिमूलरूप ऋषितीर्थ सँ तर्पण करी (प्रत्येक ऋषि केँ १-१ अञ्जलि जल दी) –
 
ॐ सनकादय आगच्छन्तु (इत्यावाह्य) –
 
ॐ सनकश्च सनन्दश्च तृतीयश्च सनातनः।
कपिलश्चाऽसुरिश्चैव वोढुः पञ्चशिखस्तथा॥
सर्वे ते तृप्तिमायान्तु मद् दत्तेनाऽम्बुना सदा॥
 
(३) मरीच्यादि ऋषितर्पण, पूर्वाभिमुहें – तदुत्तर पुनः पूर्वाऽभिमुख सव्य भय अङ्गुल्यग्रात्मक देवतीर्थ सँ प्रत्येक ऋषि केँ १-१ अञ्जलि जल दी –
 
ॐ मरीच्यादय आगच्छन्तु (इत्यावाह्य) –
 
ॐ मरीचिस्तृप्यताम्। ॐ अत्रिस्तृप्यताम्। ॐ अङ्गिरास्तृप्यताम्। ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम्। ॐ पुलहस्तृप्यताम्। ॐ क्रतुस्तृप्यताम्। ॐ प्रचेतास्तृप्यताम्। ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम्। ॐ भृगुस्तृप्यताम्। ॐ नारदस्तृप्यताम्।
 
ततः दक्षिणाभिमुहें – तदुत्तर दक्षिणाभिमुख अपसव्य भय मोड़ा जल लय पितृतीर्थ (तर्जनी ओ अङ्गुष्ठक मध्य प्रदेश) सँ १-१ (अथवा ३-३) अञ्जलि जल दी –
 
ॐ अग्निष्वात्तादय आगच्छन्तु (इत्यावाह्य) –
 
ॐ अग्निष्वात्तास्तृप्यन्ताम्, इदं जलं तेभ्यः स्वधा नमः।
ॐ सौम्यास्तृप्यन्ताम्, इदं जलं तेभ्यः स्वधा नमः।
ॐ हविष्मन्तस्तृप्यन्ताम्, इदं जलं तेभ्यः स्वधा नमः।
ॐ उष्मपास्तृप्यन्ताम्, इदं जलं तेभ्यः स्वधा नमः।
ॐ सुकालिनस्तृप्यन्ताम्, इदं जलं तेभ्यः स्वधा नमः।
ॐ बर्हिषदस्तृप्यन्ताम्, इदं जलं तेभ्यः स्वधा नमः।
ॐ आज्यपास्तृप्यन्ताम्, इदं जलं तेभ्यः स्वधा नमः।
 
ॐ यमादय आगच्छन्तु (इत्यावाह्य) –
 
ॐ यमाय नमः। ॐ धर्मराजाय नमः। ॐ मृत्यवे नमः। ॐ अन्तकाय नमः। ॐ वैवस्वताय नमः। ॐ कालाय नमः। ॐ सर्वभूतक्षयाय नमः। ॐ औदुम्बराय नमः। ॐ दध्नाय नमः। ॐ नीलाय नमः। ॐ परमेष्ठिने नमः। ॐ वृकोदराय नमः। ॐ चित्राय नमः। ॐ चित्रगुप्ताय नमः। ॐ चतुर्दशैते यमाः स्वस्ति कुर्वन्तु तर्पिताः।
 
ॐ आगच्छन्तु मे पितर! इमं गुह्णन्त्वपोञ्जलिम्॥
 
४. ततः पूर्ववत् पितृतर्पण – तदुत्तर पूर्ववत् मोड़ा, तिल, जल सँ पितृतर्पण करी (प्रत्येक बेरि ३-३ अञ्जलि जल दी आ तिलक अभाव पक्ष मे ‘सतिलं’ नहि पढी) –
 
ॐ अद्य अमुकगोत्रः पिता अमुकशर्मा तृप्यतामिदं (सतिलं) जलं तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा॥
ॐ अद्य अमुकगोत्रः पितामहः अमुकशर्मा तृप्यतामिदं (सतिलं) जलं तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा॥
ॐ अद्य अमुकगोत्रः प्रपितामहः अमुकशर्मा तृप्यतामिदं (सतिलं) जलं तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा॥
ॐ तृप्यध्वम् – ॐ तृप्यध्वम् – ॐ तृप्यध्वम्॥
 
ॐ अद्य अमुकगोत्रः मातामहः अमुकशर्मा तृप्यतामिदं (सतिलं) जलं तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा॥
ॐ अद्य अमुकगोत्रः प्रमातामहः अमुकशर्मा तृप्यतामिदं (सतिलं) जलं तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा॥
ॐ अद्य अमुकगोत्रः वृद्धप्रमातामहः अमुकशर्मा तृप्यतामिदं (सतिलं) जलं तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा॥
ॐ तृप्यध्वम् – ॐ तृप्यध्वम् – ॐ तृप्यध्वम्॥
 
ततः स्त्रीपक्ष मे १-१ अञ्जलि जल दी –
 
ॐ अद्य अमुकगोत्रा माता अमुकदेवी तृप्यतामिदं (सतिलं) जलं तस्यै स्वधा॥
ॐ अद्य अमुकगोत्रा पितामही अमुकदेवी तृप्यतामिदं (सतिलं) जलं तस्यै स्वधा॥
ॐ अद्य अमुकगोत्रा प्रपितामही अमुकदेवी तृप्यतामिदं (सतिलं) जलं तस्यै स्वधा॥
ॐ तृप्यध्वम्!
 
ॐ अद्य अमुकगोत्रा मातामही अमुकदेवी तृप्यतामिदं (सतिलं) जलं तस्यै स्वधा॥
ॐ अद्य अमुकगोत्रा प्रमातामही अमुकदेवी तृप्यतामिदं (सतिलं) जलं तस्यै स्वधा॥
ॐ अद्य अमुकगोत्रा वृद्धप्रमातामही अमुकदेवी तृप्यतामिदं (सतिलं) जलं तस्यै स्वधा॥
ॐ तृप्यध्वम्!
 
तदुत्तर यथारुचि पित्ती, पितृव्यादि अन्यान्यो व्यक्तिक तर्पण कय –
 
ॐ येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवाः।
ते तृप्तिमखिला यान्तु यच्चाऽस्मत्तोऽभिवाञ्छति॥
 
ई मन्त्र पढि जलांजलि दी। तदुत्तर भीजल धोतीक खुट हाथ मे लय –
 
ॐ ये चास्माकं कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृताः।
ते पिबन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम्॥
 
ई पढि अपुत्रादि वंशज केँ स्नान-वस्त्रक जल सँ तृप्ति कय सूर्य केँ अर्घ दी –
 
ॐ नमो विवस्वते ब्रह्मन् भास्वते विष्णुतेजसे।
जगत्‌सवित्रे शुचये सवित्रे कर्मदायिने॥
एषोऽर्घः ॐ भगवते श्रीसूर्याय नमः।
 
इति वाजसनेयिनां तर्पणविधिः॥
 
हरिः हरः!!