स्वाध्याय – गूढ तत्त्व समीक्षा
ईश्वर और जीव स्वतन्त्र छथि कि परतन्त्र
गोस्वामी तुलसीदासजी रामचरितमानस केर उत्तरकाण्ड मे लिखलनि अछि – ‘परवश जीव स्ववश भगवन्ता’ – लेकिन मीमांसकसम्राट कुमारिल भट्ट अपन कारिका केर अन्तर्गत लिखलनि अछि जे – ‘यत्नतः प्रतिषेध्या नः पुरूषाणां स्वतन्त्रता’। ईश्वर जीव रूप पुरूष केर स्वतन्त्रता यत्न सँ निषेध्य अछि। अतः जीव स्वतन्त्र अछि या परतन्त्र ताहि विषय पर पहिने विचार करैत छी।
‘दैवे पुरूषकारे च इष्टसिद्धिः प्रवर्त्तते।’
भाग्य व पुरूष (प्राणी) केर प्रयत्न भेला पर इष्ट केर सिद्धि होइत अछि। मुदा राम आ रावण केर आर पाण्डव व कौरव केर युद्ध मे रावण व कौरवक पास पर्याप्त पुरूष प्रयत्न रहलाक बादहु भाग्य केर राम आ पाण्डव केर पास रहबाक कारण राम आर पाण्डव केँ विजयी भेटलनि। अतः गणेश पुराण मे आयल अछि जे ‘दैवं हि बलवल्लोके पौरूषन्तु निरर्थकम्’ – संसार मे भाग्य टा बलवान अछि, पुरूष प्रयत्न तऽ व्यर्थ अछि। प्राचीन आचार्य लोकनिक दुइ गोट वचन छन्हि – ‘प्रतिकूलतामुपगते हि विधौ विफलत्वमेति बहुसाधनता’ – भाग्य केर प्रतिकूल भेलापर बहुतो रास साधन तक व्यर्थ भऽ जाइत छैक। ‘वामे विधौ वाममयञ्च विश्वम्’ – दैव केर प्रतिकूल भेलापर सारा संसार प्रतिकूल भऽ जाइत छैक। रत्नावली नाटिका मे लिखल गेल छैक जे –
‘द्वीपादन्यस्मान्मध्याज्जलनिधेर्दिशामन्ततोऽपि।
आनीय झटिति घटयति विधिरभिमतमभिमुखीभूतः॥’
अनुकूल भाग्य आनो द्वीप सँ, समुद्रक बीच सँ आर दिशा सभक अन्त सँ सेहो अभिमत वस्तु केँ आनिकय शीघ्र प्राप्त करा दैत अछि। नीतिग्रन्थ मे दुइ वचन आयल अछि जे –
‘अवश्यम्भाविभावानां प्रतीकारो भवेद्यदि।
तदा दुःखैर्न लिप्येरन् नलरामयुधिष्ठिराः॥’
जँ अवश्य घटयवाली (दुर्निवार) घटना केर कोनो प्रतिकार होइतैक तँ नल, राम आर युधिष्ठिर जेहेन महापुरूष कहियो दुःख सँ पीड़ित नहि होइतथि।
‘नहि भवन्ति यन्न भाव्यं भवति च भाव्यं विनापि यत्नेन।
करतलगतमपि नश्यति यस्य हि भवितव्यता नास्ति॥’
जे भावी नहि छैक, ओ नहि होइत छैक; आर, जे भावी छैक ओ बिना प्रयत्नहु केँ सेहो होइत छैक। हाथ मे आयल चीज नाश भऽ जाइत छैक जँ ओकर होनी नहि रहैत छैक तँ। आध्यात्मरामायणक युद्धकाण्ड मे लिखल गेल छैक जे ‘दैवाधीनमिदं विश्वं जीवता किंनदृश्यते’ – ई संसार दैव केर अधीन अछि, जीतल लोक कि नहि देखैछ। वृद्ध लोकनिक कथन छन्हि जे ‘मतिरूत्पद्यते तादृक् यादृशी, भवितव्यता’ – एकरे लोकोक्ति छैक जे ‘जैसी होनी हो रहे, तैसी उपजे बुद्धि’। इत्यादि सैकड़ों वचन सभ केँ मनन कयला सँ निष्कर्ष निकलैत अछि जे –
“अल्पज्ञ अल्पशक्तिमान् प्राणी पूर्ण स्वतन्त्र नहि अछि, बल्कि चेतन भगवान् केर सन्निधान सँ सञ्चालित या सञ्चल्यमान जड़ प्रारब्ध और प्रकृति (स्वभाव) केर अधीन अछि।”
आब ईश्वर स्वतन्त्र छथि या परतन्त्र एहि विषय पर विचार करैत छी। सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् भगवान् सेहो पूर्ण स्वतन्त्र नहि छथि। कियैक तऽ जँ भगवान् पूर्ण स्वाधीन भऽ कय सम्पूर्ण संसार आर सब प्राणी केँ बनबितथि तऽ सारा संसार केँ सुन्दर व सुखदे कियैक नहि बनबितथि? सब प्राणीक शरीर केँ उत्तमयोनियेक कियैक नहि बनबितथि? सब जीव केर देह केँ सुन्दर, स्वस्थ, बली, धनी आर सब सुख साधन सँ युक्त टा कियैक नहि बनबितथि? सब मनुष्य केँ बुद्धिमान्, विद्वान् आ चतुरे कियैक नहि बनबितथि? सब चीज आर स्थिति बढियें कियैक नहि बनबितथि? कोनो वस्तु आर हालत केँ खराब कियैक बनबितथि? केकरो निर्बुद्धि मूर्ख आ भोलाभाला कियैक बनबितथि? कोनो जीव केर देह केँ कुरूप, रोगी, निर्बल, दरिद्र आ दुःख सामग्री सँ युक्त कियैक बनबितथि? जँ ईश्वर पूर्ण स्वतन्त्र होइतो प्राणी मे केकरो सुन्दर आर केकरो कुरूप, केकरो निरोग त केकरो रोगी, केकरो धनी त केकरो दरिद्र, केकरो विद्वान् त केकरो मूर्ख, केकरो स्वस्थ-सुखी आर केकरो अस्वस्थ-दुःखी बनबैत छथि, तँ ओहि मे वैषम्य आ निर्दयत्व दोष केँ आयब अनिवार्य भऽ जायत। एहेन स्थिति मे ‘समोऽहं सर्वभूतेषु नमे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः’ – हम सब प्राणी मे सम छी, हमर नहिये कोनो द्वेष आर नहिये कियो प्रिय अछि – ई भगवद्गीता मे कयल भगवानक घोषणा केना सत्य होयत?
अतः लाचार भऽ कय भगवदावतार व्यास आदि महर्षि लोकनि कहलनि अछि आर हमरो लोकनि केँ मानय पड़ैत अछि जे – भगवान् सेहो ओहि-ओहि प्राणीक प्रारब्ध केर मुताबिक ताहि-ताहि प्राणीक लेल संसार रचलनि, वृष्टि, आतप (धूप), हवा आदि केर व्यवस्था एवं अन्न-फल आदिक उत्पादन करैत छथि आर ओहि-ओहि प्राणीक प्रारब्ध अनुसार टा ताहि-ताहि प्राणीक जन्म, आयु व भोग (सुख अथवा दुःख केर साक्षात्कार) केर व्यवस्था करैत छथि। व्यास रचित ब्रह्मसूत्र मे एकटा सूत्र अछि – ‘वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात् तथा हि दर्शयति’। प्राणी केर विषम व्यवस्था केलोपर परमात्मा मे वैषम्य आर निर्दयत्व दोष नहि अबैत छन्हि, कियैक तँ भगवान् प्राणी सभ केर फलोन्मुख कर्म (प्रारब्ध कर्म) केर अनुसार टा ओकर शरीर, आयु आर भोग केर व्यवस्था करैत छथि। एहि बातक समर्थन महर्षि पतञ्जलि सेहो स्वरचित योगसूत्र केर अन्तर्गत ‘सति मुले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ एहि सूत्र सँ करैत छथि। प्राणी सभक शरीरादि केर मूलकारण ‘अविद्या’ केर रहलापर ओकर प्रारब्ध कर्म सभक परिणाम जन्म, आयु आर भोग होइत छैक। कोनो प्राणीक मृत्यु भेलाक बाद ओकर जे-जे कर्म (पुण्य व पाप) अपन-अपन फल देबाक लेल उपस्थित होइत अछि, ओहि फलोन्मुख (प्रारब्ध) कर्म केर मुताबिक ताहि प्राणी केर जन्म, आयु आर भोग केर व्यवस्था परमात्मा करैत छथि। अतः प्राणी सभकेर विषय स्थितिक जिम्मेदार ओकर कर्म टा छैक, नहि कि परमात्मा। तैँ परमात्मा मे कोनो दोष नहि अबैत छन्हि।
एहि परिस्थिति मे मीमांसक विद्वान् कहैत छथि जे ‘जखन ईश्वर प्राणी सभक कर्मक अधीन भऽ कय ओकर सब व्यवस्था करैत छथि, तखन कर्महि केँ कियैक न ईश्वर मानि लेल जाय।’ ताहि लेल ‘कर्मेति मीमांसकाः’ कहल गेल छैक। मीमांसक लोकनि कर्म केँ ईश्वर मानैत छथि। ‘प्रतीतिव्यवहाराभ्यामर्थ सिद्धिः’ – जाहि वस्तुक जाहि रूप सँ ज्ञान आर व्यवहार होइत अछि, ताहि वस्तु केँ वैह रूप सँ सिद्धि होइत छैक। एहि सिद्धान्त मुताबिक केकरो अभ्युदय देखला सँ ओकर प्राक्तन पुण्य केर आर केकरो अवनति देखला सँ ओकर पूर्वाजित पाप केर अनुमान सब केँ भेला सँ तथा ‘दाने दाने में लिखा है खाने वाले का नाम’, तथा –
‘विधना जे जो लिख दिया, छठी रात को अङ्क।
राई घटै न तिल बढै, रहो वैश्य निःशङ्क॥’
इत्यादि लौकिक वाग्व्यवहार केर चलैत रहला सँ सिद्ध अछि जे सब प्राणी अपन प्रारब्धक फल भोगैत अछि। ताहि सँ सिद्धान्त ई अछि जे –
‘नहि बीज प्रयोजनाभ्यां विना कस्य चिदुत्पत्तिरस्ति’
बिना कारण आर प्रयोजन केँ केकरहु उत्पत्ति नहि भेलैक अछि। ताहि हेतु कोनो जड़ केर उत्पत्ति कोनो चेतनक भोगहि वास्ते भेलैक अछि। तखन जाहि वस्तुक उत्पत्ति जाहि प्राणीक अदृष्ट सँ भेलैक अछि, से चीज ओकरहि भेटतैक। सनातन धर्म माननिहारक सिद्धान्त ताहि लेल ई छैक जे – ‘यदस्मदीयं नहि तत्परेषाम्’ – जे हमरा लेल अछि, ओ दोसर केँ नहि भेटि सकैत छैक। अतएव पूर्ण निश्चिन्त भऽ कय ‘कुर्वन्ति वेह कर्माणि जिनीविषेच्छतं समाः’ एहि श्रुति वचन अनुसार एतय अपन बुद्धि आर सामर्थ्यक अनुसार सदैव अपन कर्त्तव्य कर्म केँ करैते सौ वर्ष धरि जियइ केर इच्छा राखय।
मीमांसक शिरोमणि कुमारिल भट्ट तथा दार्शनिक सम्राट वाचस्पति मिश्र केर कथन अछि जे ‘जँ परमेश्वर सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् भऽ पूर्ण स्वतंत्र छथि तऽ – आत्मा केर हत्या कय देथि, वेद केँ अप्रमाण बना देथि, पुण्य केर फल दुःख आर पाप केर फल सुख कय देथि, तथा ब्रह्महत्या सँ धर्म एवं अश्वमेध सँ अधर्म उत्पन्न कय देथि। मुदा उक्त सबटा मे एकहु टा नहि कय सकैत छथि, एतय हुनकर सर्वशक्तिमत्ता कुण्ठित भऽ जाइत छन्हि, तखन भगवान् केँ पूर्ण स्वतन्त्रता केना भेलनि? हाँ, सनातन स्वतः प्रमाण आगम (तन्त्र) आ निगम (वेद) स्वरूप संविधान या नियम सँ प्रतिपादित सनातन धर्मक अविरुद्ध बाकी किछुओ करय मे ईश्वर स्वतन्त्र छथि। अतः भगवद्गीता मे भगवान् केर वचन अछि ‘धर्माविरुद्धः कामोऽस्मि भूतेषु भरतर्षभ’ – हे भरत कुलश्रेष्ठ! सब प्राणी मे सनातन धर्मक अविरुद्ध काम हम छी। एहि तरहें पूर्ण विचार कयलाक बाद निष्कर्ष निकलैत अछि जे सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् भगवान् मे आंशिक परतन्त्रताक संग आंशिक स्वतन्त्रता छन्हि, तहिना अल्पज्ञ अल्पशक्तिमान् जीव मे सेहो छैक। पूर्ण (सर्वांश मे) स्वतन्त्रता या परतन्त्रता जेना ईश्वर मे नहि छन्हि, तहिना जीवहु मे नहि छैक। अतएव श्रुति माता कहैत छथि कि –
‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषत्वजाते।
तयोरेकः पिप्पलं स्वाद्वति, अनशन्न्योऽभिचाकशीति॥’
दुइ सुन्दर पाँखि ‘विद्या आर जीवक प्रारब्ध’ तथा ‘अविद्या आर अपन प्रारब्ध’ वला, अच्छेद्यत्व, अदाह्यत्व, अफ्लेद्यत्व, अशोषयत्व, अखाद्यत्व, नित्यत्व, सर्वगतत्व, स्थाणुत्व, अचलत्व, सनातनत्व, अव्यक्तत्व, अचिन्त्यत्व, अविकार्यत्व, सत्यत्व, चेतनत्व, आनन्दत्व, अनन्तत्व, ब्रह्मत्व, स्वातन्त्र्त्व, पारतन्त्र्त्व, अजड़त्व तथा आत्मत्व आदि धर्म सँ समान योग वला, दुनू अनादिमित्र ईश तथा जीव, एक्के हृदय केँ आलिङ्गन करैत रहनिहार छथि। एहि दुनू मे एक जीव कर्म फल केर स्वाद भोगैत अछि, दोसर ईश्वर बिना भोगनहि प्रकाशित रहैत छथि।
वस्तुतः अनन्त जीव केर प्रत्येक मोन मे रहयवला एक्के टा चेतन ईश शब्द सँ आर जीव शब्द सँ कहल जाइत अछि। अतएव भगवान् गीता मे दुइ गोट वचन कहने छथि –
‘उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ताभोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरूषः परः॥’
एहि देह (केर मोन) मे स्थित आत्मा परमात्मा थिकाह, जे साक्षी होयबाक कारण उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देला सँ अनुमन्ता, धारण, पोषण कयला सँ भर्त्ता, जीव रूप सँ भोक्ता, सभक स्वामी होयबा सँ महेश्वर आर सच्चिदानन्द रूप सँ परमात्मा कहल गेला अछि।
‘अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते॥’
हे अर्जुन! अनादि आर निर्गुण भेला सँ ई अविनाशी परमात्मा शरीर केर मोन मे रहैतो नहि किछु करैत छथि, आर न लिप्त होइत छथि।
एवं अध्यात्म रामायण केर अरण्यकाण्ड मे भगवान् राम लक्ष्मण सँ कहैत छथि –
‘जीवश्च परमात्मा च पर्यायोनात्र भेदधीः’ – जीव तथा परमात्मा ई पर्याय (एकार्थक) शब्द थिक।
अतः एहि शब्द केर बोध्य मे भेद बुद्धि युक्त नहि अछि। पुनः ओही रामायणक उत्तकाण्ड मे भगवान् राम माता कौशल्या सँ कहलनि अछि –
‘चेतसैवानिशं सर्वभूतानि प्रणमेत्सुधीः।
ज्ञात्वा मां चेतनं शुद्ध जीवरूपेण संस्थितम्॥
तस्मात्कदाचिन्नेक्षेत भेदमीश्वर जीवयोः॥’
सुबुद्धि व्यक्ति हमरा शुद्ध चेतन केँ जीव रूप सँ संस्थित जानिकय सदिखन सब प्राणी केँ मोन सँ प्रणाम करय। अतः ईश्वर आर जीव केर भेद कहियो नहि देखय।
ब्रह्मसूत्र केर शाङ्कर भाष्य केर द्वितीयाध्याय प्रथम पाद केर भामती मे विश्ववन्दयवैदुष्य वाचस्पति मिश्र केर वचन छन्हि –
‘मा नाम जीवाः परमात्मताभात्मनोऽनुभूवन्, परमात्मा तु तानात्यनोऽभिन्नाननुभवत्येव, अन्यथा सर्वज्ञत्वव्याघातः।’
जीव भले हि अज्ञान सँ आवृत्त रहबाक कारण अपन परमात्मता नहि जानय, किन्तु परमात्मा तँ जीव केँ अपना सँ अभिन्न जनिते टा छथि। अन्यथा हुनकर सर्वज्ञत्व नष्ट भऽ जेतनि।
इत्यादि सैकड़ों वचन केर तात्पर्यक पूर्ण विचार कयला सँ निष्कर्ष निकलैत अछि –
‘सब प्राणीक हृदय मे रहनिहार एक्के आत्मा ईश्वर केर गुण सभक अधिक अभिव्यक्ति भेला सँ परमात्मा शब्द सँ, और जीव केर गुण केर अधिक अभिव्यक्ति भेला सँ जीव शब्द सँ व्यवहृत होइत अछि।’
हरिः हरः!!