भगवान केर पहिचान पर नैय्यायिक पंडित रुद्रधर झा – अत्यन्त पठनीय आ मननीय लेख

समस्त चराचर प्राणी तथा सम्पूर्ण विश्व साक्षात् भगवाने छथि

– पंडित रुद्रधर झा (मैथिली अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)

‘हरि रेव जगज्जगदेव हरिर्हरितो जगतो न भिन्नतनुः’ (आर्षवाणी)

भगवाने समस्त जड़चेतनमय संसार छथि आर सम्पूर्ण जड़चेतनमय विश्वे भगवान् थिक, कियैक तँ समस्त जड़चेतनमय संसारक भगवान् सँ भिन्न शरीर नहि अछि। अर्थात् – भगवान् केर शरीर सम्पूर्ण जड़चेतनमय विश्व थिक आर समस्त जड़चेतनमय संसारक शरीर भगवान् थिक।

‘चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद्वयाप्य स्थिता जगत्’ (दुर्गासप्तशती ५/८०)

भगवती चेतनारूप सँ एहि सम्पूर्ण (जड़) संसार केँ व्याप्त कय केँ स्थित छथि।

‘जड़ाद्विभिन्नं चैतन्यं दृष्टं नैव न दृश्यते’ (पूर्णता-प्रत्यभिज्ञा २७८)

जड़ सँ अलग भऽ कय चैतन्य नहिये बुझय मे आयल आर नहिये बुझय मे अबैत अछि। यद्यपि चैतन्यरूप भगवान् सब जड़ (आकाशादि) मे समान रूप सँ व्याप्त छथि आर अन्यत्र (निष्प्राण) जड़ मे अव्यक्त रहितो शास्त्रक वचन सँ मान्य होइत छथि।

ओम् नमः सर्वभूतानि विष्टभ्य परितिष्ठते।
अखण्डानन्दबोधाय पूर्णाय परमात्मने॥ (अनु. दिधि. मङ्ग.)

(नोटः प्रसिद्ध नैय्यायिक गंगेश उपाध्याय रचित तत्त्वचिन्तामणिक अनुमान खण्ड पर नव्यनैय्यायिक रघुनाथ शिरोमणि द्वारा ‘दीधिति व्याख्या’ ईश्वरक वर्णन करैत लिखल गेल अछि, संभवतः लेखक पं. रुद्रधर झा एतय वैह सन्दर्भ केँ ‘अनु. दिधि. मङ्ग.’ कहिकय रखलनि अछि।)

‘समस्त भूत (जीव तथा भूम्यादि) केँ धारण कय विराजमान अखण्ड, आनन्द आर ज्ञान स्वरूप पूर्ण परमात्मा केँ नमस्कार अछि।’

‘विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्’ (श्रीमद्भगवद्गीता १०/४२)

हम (भगवान्) एहि समस्त जड़ (संसार) केँ एक भाग सँ धारणकय स्थित छी।

‘पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि’ (पुरुष सुक्त ३)

एहि अनन्त ब्रह्मक कल्पित अनन्त चतुर्थ भाग सम्पूर्ण विश्व तथा समस्त प्राणी थिक आर कल्पित अनन्त तीन भाग अमृत स्व मे अछि, जे केवल मुक्त जीव प्राप्य अछि।

‘भवान् नारायणः साक्षाज्जगतामादिकृद्विभुः।
त्वत्स्वरूपमिदं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्॥’ (अध्यात्म रामायण, उत्तरकाण्ड २/६३)

अहाँ साक्षात् जड़चेतनमय समस्त संसारक आदि कर्ता व्यापक नारायण छी, ई सम्पूर्ण जड़चेतनमय विश्व तथा समस्त चराचर प्राणी अहींक स्वरूप थिक।

‘मनसा वचसा दृष्ट्या ग्रह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः।
अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वमज्जसा॥’ (श्रीमद्भागवत कथा ११/१३/२४)

मन सँ, वचन सँ, नयन सँ तथा अन्य इन्द्रिय सँ पर्यन्त जे किछु बुझय मे अबैत अछि, ओ सब हमहीं (भगवान्) थिकहुँ। हमरा सँ अन्य किछुओ नहि अछि, ई सरलता सँ जानि ली।

‘दृश्यते श्रूयते यद्यत् स्मर्यते वा रघूतम।
त्वमेव सर्वमखिलं त्वद्विनाऽन्यन्न किञ्चन॥’ (अध्यात्म रामायण, युद्धकाण्ड १४/२७)

हे रघुवर! जे-जे देखाइत अछि, या सुनल जाइत अछि अथवा याद कयल जाइत अछि, ओहि सभक सब किछु अहीं टा छी, अहाँ बिना आन किछुओ नहि अछि।

क्रमशः…..

नोटः (आध्यात्मिक अध्ययन मे रुचि रखनिहार मित्र-पाठक लोकनि लेल)

आजुक समय मे आध्यात्मिक अध्ययन सभक रुचि नहि छैक, लेकिन जे कियो एहि स्वाध्याय मे मनन करैत होइ तिनका लेल मात्र ई अनुपम-उत्कृष्ट रचना सब पंडित रुद्रधर झा केर लिखल हुनकहि पोथी “गूढ तत्त्व समीक्षा’ मे सँ समय-समय पर अपने सब तक आनि रहलहुँ अछि। आशा करैत छी जे एकर उचित लाभ निश्चित अपने लोकनि उठा रहल होयब। शेष शुभ!

दिन – २, १५ अगस्त, २०१८ केँ निरन्तरता मे आलेख

समस्त चराचर प्राणी तथा सम्पूर्ण विश्व साक्षात् भगवाने छथि
 
– पंडित रुद्रधर झा (अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)
 
निरन्तरता मे…..
 
प्र. भगवान् किनका कहल जाइछ?
 
उ.
‘ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा॥’
 
– ना. पूर्व. ४६.१७*
 
सम्पूर्ण ऐश्वर्य, समस्त धर्म, समग्र यश, सम्पूर्ण श्री, समस्त ज्ञान आ समग्र वैराग्य – एहि छ केर नाम ‘भग’ थिक। एहि सँ युक्त केँ भगवान् कहल जाइत अछि।
 
‘उत्पत्तिं प्रलयं चैव भूतानामागतिं गतिम्।
वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति॥’
 
– ना. पूर्व. ४६.२१**
 
जे सृष्टि आ प्रलय केँ, प्राणीक आवागमन केँ तथा विद्या व अविद्या केँ जनैत छथि, ओ भगवान् कहाय योग्य छथि।
 
*ई श्लोक केर सन्दर्भ सम्माननीय लेखक पंडित रुद्रधर झा अपन पोथी मे ‘ना. पूर्व. ४६.१७ लिखने छथि। दुर्भाग्यवश हमर अध्ययन या खोज मे ना. पूर्व. केर पूरा नाम नहि बुझि सकलहुँ। हालांकि यैह श्लोक विष्णुपुराण केर ६/५/७४ मे उल्लेखित अछि। भगवान् केर परिभाषा मे ई श्लोक सर्वोच्च रूप सँ सहस्रों विद्वान् उल्लेख कयलनि अछि। आर सौभाग्य बुझी हमरा लोकनि जे कुल छः शास्त्र मे सँ चारि महत्वपूर्ण शास्त्र केर उद्भेदन संग अध्ययन-मनन मे माहिर मिथिलाक विद्वान् मध्य एक स्वयं पंडित रुद्रधर झा सेहो भगवान् केँ परिभाषित करैत ‘समस्त चराचर प्राणी आ सम्पूर्ण विश्व साक्षात् भगवाने छथि’ शीर्षक मे उल्लेख प्रश्नोत्तरीक रूप मे सहज बुझाइ वास्ते कयलनि अछि। जँ कियो जानकार (विज्ञजन) केँ ‘ना. पूर्व.’ केर बारे मे पता रहय त जरूर बतायब।
 
**पुनः ‘ना. पूर्व. ४६/२१ केर सन्दर्भ सँ अपरिचित परञ्च पूर्व उल्लेखित तथ्य जे ई श्लोक सेहो विष्णुपुराण ६/५/७८ मे उद्धृत अछि। भगवान् केँ परिभाषित करबाक क्रम मे यैह दुइ महत्वपूर्ण श्लोक सनातन धर्म तथा वेद-वेदान्त सँ सुपरिचित अनेकों महापुरुष लोकनि अपन विचार मे रखैत भेटैत अछि।
 
प्र. भगवान् केर स्वरूप कतेक छन्हि?
 
उ. भगवान् केर स्वरूप चारि गोट छन्हि – परतम, परतर, पर आ अपर। जाहि मे परतम भेल – अपास्तमसमस्तदोष नित्य – शुद्ध – बुद्ध – मुक्त – निर्गुण निराकार एक मात्र अद्वितीय सच्चिदानन्द ब्रह्म आत्मा जे क्रमशः श्रुति, पुराण आर इतिहासक भाषा मे –
 
‘स देव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्धितीयं ब्रह्म’ (छन्दोग्योपनिषद् ६/२/१)
 
– हे सोम! सृष्टि सँ पूर्व ओ सत् टा एकमात्र अद्वितीय ब्रह्म छथि।
 
‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ (तैत्तिरीयोपनिषद् २/१/२)
 
– सत्य, ज्ञान आर अनन्त ब्रह्म छथि।
 
‘आनन्दो ब्रह्मेति व्याजनात्’ (तैत्तिरीयोपनिषद्, भृगुवल्ली, षष्ठोऽनुवाकः, श्लोक १)
 
– आनन्द ब्रह्म छथि, से बुझलनि।
 
‘निर्गुणं निष्क्रियं शान्तम्’ (श्वेतोपनिषद् ६/१९)
 
ओ ब्रह्म निर्गुण, निष्क्रिय तथा शान्त छथि।
 
‘स वा एष महानज आत्माऽन्तर्याम्यमृतः’ (बृहदारण्योपनिषद् ४/२/३१)
 
ओ या ई आत्मा महान्, अज, अन्तर्यामी तथा अमृत छथि।
 
‘अविनाशीवाऽरेऽयमात्माऽनुच्छित्तिधर्मा’ (अद्वैत् वेदान्त)
 
ई आत्मा अविनाशी आर अनुच्छेद धर्मा अछि।
 
‘अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥गीता २/२४॥
 
ई आत्मा छेद, दाह, क्लेद तथा शोष सँ हीन जन्म-मृत्युरहित, सर्वव्यापी, स्थिर, अचल आ सनातन अछि।
 
(क्लेद माने पानि सँ भींजब, आर्द्रता ग्रहण करब आ शोष माने सोखल-सुखायल जायब)
 
क्रमशः…..
 
हरिः हरः!!
समस्त चराचर प्राणी तथा सम्पूर्ण विश्व साक्षात् भगवाने छथि
– पंडित रुद्रधर झा
(अनुवाद प्रवीण नारायण चौधरी)
लेख निरन्तरता मे…. तेसर दिन….
‘निर्विकल्पो निर्विकारो निराकारो निरीश्वरः।
षड्भावरहितोऽनादिः पुरुषः प्रकृते परः॥’
– अध्यात्म रामायण, युद्धकाण्ड – ३/२९
आत्मा निर्विकल्प, निर्विकार, निराकार, अस्वामिक, (उत्पत्ति, वृद्धि, परिणाम, अपचय, जीर्णता, आर नाश) एहि छह गोट भावविकार सँ रहित तथा प्रकृति सँ अतीत अनादि पुरुष अछि।
मुदा एकमात्र अद्वैत ब्रह्म सँ जड़-जीवमय जगत् नहि भऽ सकैत, तैँ –
‘चिदानन्द मयः साक्षी निर्गुणो निरुपाधिकः।
नित्योऽपि भजते तां तामवस्थां स यदृच्छया॥’
– स्कन्दपुराण वैष्णवखण्ड ३५/३७
ज्ञान तथा आनन्द स्वरूप, साक्षी, निर्गुण, निरुपाधि, नित्य आत्मा लीला सँ ओहेन-ओहेन अवस्था केँ धारण करैत छथि जेकरा अनुसार सच्चिदानन्द ब्रह्म स्वयं जीव-जगत्सर्जनादिलीलार्थ-शक्ति-शक्तिमान् या प्रकृति पुरुष या माया मायी, या परमेश्वरी परमेश्वर या भगवती भगवान् रूप भऽ गेलाह। अतः श्रुति कहैत अछि –
‘मायान्तु प्रकृतिं विद्यान्यायिनन्तु महेश्वरम्’
माया केँ प्रकृति जानू तथा मायी केँ महेश्वर।
तखन चिदानन्दरूपा सत्वरजस्तमोगुणमयी परतरा शक्ति सँ समन्वित सर्वज्ञ सर्वसमर्थ चिदानन्दमय परतर भगवान् –
‘तदैक्षत‍-एकोऽहं बहु स्याम् प्रजायेय’ – ओ ईक्षण (संकल्प) कयलनि – एक हम बहुते बनि जाय, शरीरी होय।
‘अनेन जीवेनात्मनाऽनु प्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि’ – एहि जीव रूप सँ नाम रूप मे प्रविष्ट भऽ कय करी।
आर,
‘आनन्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते’ – आनन्द सँ मात्र प्राणी जन्म लैत अछि।
इत्यादि श्रुति सभक मुताबिक अपन आभास सँ उदित त्रिगुणात्मिका अनन्द अविद्या सँ समन्वित अनन्त पर जीव बनि गेल। अनादि मित्र या दुनू (भगवान् तथा जीव) सब प्राणी केर हृदय मे संग-संग सदैव निवास करैत छथि।
‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरेकः पिप्पलं स्वाद्धत्यनश्तन्नन्योऽभिचाकाशीति॥’
– मुण्डकोपनिषद् ३/१/१
माया आ प्राणी केँ फलोन्मुख कर्म एवं अविद्या तथा प्रारब्ध रूपी सुन्दर पाँखि वला, सत्यता, चेतनता, आनन्दता आर ब्रह्मता आदि सँ समान रूप मे योग राखयवला दुइ मित्र पक्षी (परमात्मा तथा जीवात्मा) एक्के टा प्राणी केर अन्तःकरणरूपी वृक्ष पर सदैव एक संग रहैत छथि, हुनका एक (जीवात्मा) कर्मफलक स्वाद कय भोग करैत छथि आर दोसर (परमात्मा) बिना किछु भोगैते सर्वथा पूर्ण प्रकाशित होएत रहैत छथि।
‘मनसैतानि भूतानि प्रणमेद् बहु मानयन्।
ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति॥’
– श्रीमद्भागवत्कथा ३/२९/२४
सब प्राणीक हृदय मे ईश्वर जीवरूप सँ प्रविष्ट होएत छथि, तैँ एहि प्राणी सब केँ भगवान् बुझिकय बहुत सम्मान करैत मोन सँ प्रणाम करू। ‘सूक्ष्माणामप्यहं जीवः’ – श्रीमद्भात्कथा – ११/१६/११ – सूक्ष्म वस्तु सब हम (भगवान्) प्राणी छी।
‘मयेश्वरेण जीवेन गुणेन गुणिना विना।
सर्वात्मनाऽपि सर्वेण न भावो विद्यते क्वचित्॥’
– श्रीमद्भागवत्कथा ११/१६/३८
ईश्वर, जीव, गुण, गुणी, सभक आत्मा आर सभक रूप हमरा बिना कोनो वस्तु कतहु नहि अछि।
‘मामेक मेव शरणमात्मानं सर्वं देहिनाम्।
याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्यकुतोभयः॥’
– श्रीमद्भागवत्कथा ११/१२/१५
सब प्राणीक आत्मा हमरे एक केर सभक आत्मा – एहि भाव सँ शरण मे जाउ, कियैक तँ हमरे टा सँ अहाँ आर सभसँ निर्भय भऽ जायब।
‘प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥’
गीता – ७/५
जाहि सँ ई सम्पूर्ण जगत् धारण कयल जाइत अछि, ओहि जीवरूपा हमर प्रकृति केँ परा बुझू हे महाबाहु! ‘भूतानामस्मि चेतना’ – (गीता १०/२२) – हम (भगवान्) सब प्राणीक चैतन्य (आत्मा) छी।
क्रमशः…..
हरिः हरः!!

समस्त चराचर प्राणी तथा सम्पूर्ण विश्व साक्षात् भगवाने छथि

– पंडित रुद्रधर झा

लेख निरन्तरता मे चारिम दिन……

‘उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुषः परः॥गीता – १३/२२॥’

एहि देह मे स्थित आत्मा परमात्मा छथि, ओ साक्षी रहला सँ उपद्रष्टा, सम्मति देबयवला भेला सँ अनुमन्ता, शरीर केँ धारण आ पोषण करनिहार होयबाक कारण भर्त्ता, जीवरूप सँ भोक्ता, अपन अङ्ग आर वस्तु केर स्वामी होयबाक कारण महेश्वर आर सगुण सच्चिदानन्द भेला सँ परमात्मा कहल गेल अछि।

‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनञ्च।’ (गीता १५/१५)

हम (भगवान्) सब प्राणीक हृदय मे स्थित छी आर हमरे सँ स्मरण, ज्ञान आ बिसरब होएत छैक।

‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।’ (गीता १८/६१)

हे अर्जुन! ईश्वर सब प्राणी केर हृदय प्रदेश मे रहैत छथि।

‘या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते’ (दुर्गासप्तशती ५/१९)

जे देवी सब प्राणी मे चेतना कहल जाइत छथि।

‘जीवश्च परमात्मा च पर्यायो नान्त भेदधीः’ (अध्यात्म रामायण, अरण्डकाण्ड ४/३१)

जीव आर परमात्मा – ई दुनू शब्द पर्याय (एकार्थक) अछि, अतः ई दुनू शब्दक अर्थ (चेतन) मे भेद बुद्धि नही करक चाही।

‘चेतसैवानिशं सर्वभूतानि प्रणमेत्सुधीः।
ज्ञात्वा मां चेतनं शुद्धं जीवरूपेण संस्थितम्॥
तस्मात्कदाचिन्नेक्षेत भेदमीश्वरजीवयोः। (अध्यात्म रामायण उत्तरकाण्ड ७/७९-८०)

हम शुद्ध चेतन केँ जीवरूप सँ स्थित जानिकय बुद्धिमान् लोक अहर्निश सब प्राणी केँ मोन सँ मात्र प्रणाम करय। तैँ जीव आ ईश्वर मे फरक कहियो नहि देखय।

उक्त सब प्रमाण सँ सिद्ध अछि जे – सब प्राणी प्रत्यक्ष भगवान् छथि। अतएव दार्शनिक सम्राट् श्रीवाचस्पति मिश्र ब्रह्मसूत्र शंकरभाष्य अध्याय २ पाठ १ केर भामतीक अन्तिम भाग मे लिखलनि अछि जे –

‘मा नाम जीवाः परमात्मात्मनोऽनुभूवन्,
परमात्मा तु ज्ञानात्मनोऽभिन्नाननुभवत्येव,
अन्यथा सर्वज्ञत्वव्याघातः’

जीव अविद्या सँ आच्छन्न रहलाक कारण अपन परमात्मा केँ नहि जानय, मुदा परमात्मा ओहि (प्राणी) केँ अपना सँ अभिन्न बुझिते टा छथि, नहि तँ हुनकर सर्वज्ञत्व कटि जायत।

‘अहमात्माऽन्तरो ब्राह्योऽनावृतः सर्वदेहिनम्।
यथा भूतानि भूतेषु बहिरन्तः स्वयन्तथा॥’

– श्रीमद्भागवत्कथा ११/१५/३६

जेना माटि आदिक पात्र मे बाहर भीतर माटि आदि मात्र रहैत अछि, तहिना सब प्रकारक प्राणीक बाहर भीतर हम स्वयं ‘आत्मा’ प्रकट रहैत छी।

‘नान्यं देवं महादेवाद् व्यतिरिक्तं प्रपश्यति।
तमेवात्मानमन्वेति यः स याति परं पदम्॥
मन्यन्ते ये स्वमात्मानं विभिन्न परमेश्वरात्।
न ते पश्यन्ति तं देवं वृथा तेषां परिश्रमः॥’

– आर्षवाणी

जे सभक परम प्रकाशक परमात्मा सँ भिन्न अन्य कोनो प्रकाशक केँ नहि देखैछ तथा ओहि परमात्मा केँ मात्र अपन आत्मा जनैत अछि, ओ परम पद पबैत अछि। जे अपन आत्मा केँ परमात्मा सँ भिन्न मानैत अछि, ओ ओहि परमेश्वर केँ नहि देखैत अछि, ओकर भगवान् केर दर्शनार्थ परिश्रम व्यर्थ होइत छैक।

‘यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम्।
हित्वाऽर्चां भजते मौढ्याद् भस्मन्येव जुहोति सः॥’

– श्रीमद्भागवत्कथा ३/२९/२२

जे सब प्राणी मे विद्यमान् आत्मारूप हम ईश्वर केँ छोड़िकय प्रतिमा आदिक पूजा करैत अछि, मूर्खता सँ ओकर पूजा छाउर मे आहुति छोड़बाक समान व्यर्थ छैक।

‘एकः समस्तं यदिहास्ति किञ्चित् तदच्युतो नास्ति परं ततोऽन्यत्।
सोऽहं स च त्वं स च सर्वमेतदात्म स्वरूपं त्यज भेदमोहम्॥’

– विष्णुपुराण २/१६/२३

एहि संसार मे जे किछु अछि, ओ सब एक अविनाशी आत्मा टा थिक, ओहि सँ भिन्न दोसर किछु नहि अछि। हम, तूँ आर ई सब आत्मास्वरूप टा छी, अतः भेदज्ञान रूप मोह केँ छोड़।

क्रमशः…..

हरिः हरः!!

समस्त चराचर प्राणी तथा सम्पूर्ण विश्व साक्षात् भगवाने छथि
– पंडित रुद्रधर झा
लेख निरन्तरता मे पाँचम दिन……
‘त्वत्त एव जगज्जातं त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम्।
त्वय्येव लीयते कृत्स्नं तस्मात्त्वं सर्वकारणम्॥’
– अध्यात्म रामायण – अयोध्याकाण्ड १/२५
सम्पूर्ण विश्व अहीं सँ उत्पन्न अछि, अहीं मे सुस्थित अछि आर अहीं मे लीन होइत अछि, तैँ अहीं सभक कारण थिकहुँ।
एहि वचन अनुसार चिदानन्दरूपा त्रिगुणमयी तमोगुणप्रधाना परता शक्ति सँ समन्वित सर्वसमर्थ चिदानन्दमय पूर्ण परतर भगवान् – ‘पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णं उदच्यते । पूर्णस्य पूर्ण मादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥’ – भगवद्रूप ब्रह्म जगत् भगवद्रूप ब्रह्म सँ जगत् बनल अछि। संसारक अनादि सृष्टि लय धारा मे जाहि पूर्ण भगवान् सँ पूर्ण संसारक सृष्टि होइत अछि, लयकाल मे पूराक पूरा संसार केँ अपनहि मे लीन कय केँ पूर्ण भगवान् मात्र बचि जाइत छथि।
श्रुतिक अनुसार ‘स्वयमेव जगद् भूत्वा तदात्मानं स्वयमकुरुत, सच्चत्यच्चाभवत् – स्वयं ओ संसार बनिकय ओकरा अपन शरीर स्वयं बनौलनि आ स्वयं केँ ओकर शरीर बना देलनि, अतः अविनाशी तथा विनाशी स्वरूप बनि गेलाह। ‘तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूत आकाशाद्वायुर्वायोरग्निरग्नेरापोऽद्भयः पृथिवी’ – ओ या ई तम (प्रधानमाया) आत्मा (भगवान्) सँ आकाश, ओहि सँ वायु, ओहि सँ अग्नि, ओहि सँ जल तथा ओहि सँ पृथिवी उद्भूत भेल। और ‘तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्’ ओहि (आकाशादि) केँ बनाकय ओहि मे प्रविष्ट भेलाह। इत्यादि श्रुतिक आधार सँ अपन अनादि मित्र समस्त प्राणी केर भोगार्थ भोग्य समुदायक निर्माण लेल शक्तिसमन्वित पूर्ण समर्थ भगवान् स्वयं केँ मात्र आकाशादि जगद्रूप बनाकय कतहु जीवरूप सँ, कतहु अव्यक्त चेतन रूप सँ प्रविष्ट भेलाह।
आकाश आदि पाँचो भूत केर सम्मिलित सत्वांश सँ अन्तःकरण बनैछ, जे संशयात्मक वृत्तिस्वरूप वला ‘मोन’ नाम सँ, निश्चयात्मकवृत्ति स्वरूप वला ‘बुद्धि’ नाम सँ, गर्वात्मकवृत्ति स्वरूप वला ‘अहंकार’ नाम सँ तथा स्मरणात्मकवृत्ति स्वरूप वला ‘चित्त’ नाम सँ कहल जाइत अछि। ई आकाश आदि पाँचों भूत, सचित्त मोन, बुद्धि तथा अहंकार – आठों भगवानक अपर स्वरूप थिक।
‘भूमिरापोऽनलोवायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा अपरेयम॥गीता ७/४॥’
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, (सचित्त) मन, बुद्धि आ अहंकार – ई आठ प्रकार सँ विभक्त हमर अपरा प्रकृति (जड़ स्वरूप) थिक। उक्त पाँचों भूतक – पाँचो सत्त्वांश सँ क्रमशः श्रोत्र, त्वक, चक्षु, रसन आर घ्राण नामक पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँचो रजांश सँ क्रमशः वाक्, पाणि, पाद, पायु आर उपस्थ नामक पाँच कर्मन्द्रिय एवं सम्मिलित सत्व, रज ओ तम अंश सँ प्राण उत्पन्न होइत अछि जाहि मे एक्के टा प्राण, स्थान तथा प्राणनादि व्यापारक भेद सँ – प्राण, अपान, समान, उदान तथा व्यान – एहि पाँच नाम सँ कहल जाइत अछि।
‘हृदि प्राणो गुदेऽपानः समानो नाभिमण्डले।
उदानः कण्ठदेशस्थो व्यानः सर्वशरीरगः॥’ (आर्षवाणी)
हृदय मे रहयवला तथा प्राणन व्यापार करयवला ‘प्राण’, गुदा मे रहयवला तथा नीचाँ आनयवला ‘अपान’, नाभि मे रहयवला तथा खेलहा केँ बराबर करयवला ‘समान’, कण्ठ मे रहयवला आर उदरस्थ केँ ऊपर लाबय वला ‘उदान’ तथा समस्त शरीर मे चलयवला तथा रस केँ पहुँचाबयवला वायु ‘व्यान’ कहाइत अछि।
साहङ्कार बुद्धि, सचित्त मोन, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय तथा पाँच प्राण – यैह सत्रह अङ्ग वला सूक्ष्म शरीर कहाइत अछि।
सब प्राणी केर – ‘कारण’, ‘सूक्ष्म’ तथा ‘स्थूल’ – ई तीन टा शरीर होइत छैक। जीव प्रत्येक कारण शरीर (अविद्या) केर संग तादात्म्याभिमान कयला सँ प्राज्ञ, प्रत्येक सूक्ष्मशरीर मे अहं (हम) अभिमानी भेला सँ तैजस आर प्रत्येक स्थूल शरीर केर संग तादात्म्याभिमानी भेला सँ विश्व कहाइत अछि। विशुद्ध सत्वप्रधानमायोपाधिक ईश्वर सब प्राणी केर समस्त सूक्ष्मशरीर केर संग तादात्म्याभिमान कयल सँ हिरण्यगर्भ आर वैह सम्पूर्ण शरीर स्थूल देह मे अहमाभिमानी भेला सँ वैश्वानर कहाइत अछि। अतः ‘हिरण्यगर्भतामीशः’ तथा ‘हिरण्यगर्भः स्थूलेऽस्मिन् देहे वैश्वानरो भवेत्’ (आदिसर्गः पञ्चतत्त्व २४, २८)।
तद्भोगाय पुनर्भोग्यभोगायतनजन्मने।
पञ्चीकरोति भगवान्प्रत्येकं वियदादिकम्॥
द्विधा विधाय चैकैकं चतुर्धा प्रथमं पुनः।
स्वस्वेतरद्वितीयांशौर्योजनात्यञ्च पञ्चते॥
तैरण्डस्तत्र भुवने भोग्यभोगाश्योद्भवः॥
– आदिसर्गः पञ्चतत्त्व २६/२८
ईश्वर तथापि जीव केर भोग लेल भोग्य (ज्य) अन्न-पानि आदि तथा भोगायतन-जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्भिज्ज (मनुष्य-पश्वादि, सर्पादि, कीटादि तथा वृक्षादि) एहि चारि प्रकार शरीरक समूह केर उत्पत्ति वास्ते आकाश आदि प्रत्येक भूत केँ पञ्चभूतात्मक करैत अछि। प्रत्येक भूत केर दुइ भाग मे कय, फेर ओहि दुनू मे पहिल भाग केँ चारि भाग मे कय ओकरा सभक अपन-अपन दोसर स्थूल भाग सँ अतिरिक्त चारि भूत केर दोसर स्थूल भाग केर संग मिला देला पर प्रत्येक पाँच भूत पञ्चात्मक भऽ जाइत अछि। ओहि पञ्चभूतात्मक पाँचो भूत सँ ब्रह्माण्ड बनल, ओहि मे चतुर्दश भुवन – भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः तथा सत्यम् – ई सात ऊपर मे रहयवला तथा अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातल, पापाल – ई सात नीचाँ मे रहयलवाल बनल, ओहि भुवन सभ मे ताहि-ताहि प्राणी सँ भोजन करय योग्य अन्न आदि आर ओहि-ओहि लोकक योग्य शरीर ओही पञ्चभूतात्मक पाँ भूत सँ बनैत अछि। स्वयं आविर्भूत सशक्तिक भगवान् नारायण अपन नाभिकमल सँ स्वयं ब्रह्मारूप सँ उद्भूत भेलाह, ‘आदिकर्ताऽसि लोकानां ब्रह्मात्वं चतुराननः’ – अहाँ स्त्री-पुरुषमय समस्त लोकक आदिस्रष्टा चतुर्मुख ब्रह्मा बनू (अध्यात्म रामायण, युद्धकाण्ड १३/५)।
हुनका (ब्रह्माकेँ) सृष्टि करबाक आज्ञा भगवान् सँ भेटला पर स्मृत भेल श्रुति – ‘आनन्दाद्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते’ – आनन्द सँ मात्र ई सब प्राणी उत्पन्न होइत अछि, आर आनन्द होइत अछि रति (रमण) कयला सँ, किन्तु – ‘एकाकी स न रेमे, तस्मादेकारी न रमते, ततो द्वितीय मैच्छत्, तदाऽऽत्मानमेव द्वेधा व्यतिपातयत्, यथा स्त्रीपुमांसौ सम्परिष्वक्तौ स्याताम् इत्यादि’ (बृहदारण्यकोपनिषद् प्रथम खंड) – अकेले ओ रति नहि कय सकलाह, अतः अकेले कियो रमण नहि करैत अछि, अतः दोसर केँ चाहत केलाह, तखन (दोसर नहि भेटलापर लाचारीवश) अपना-आप केँ दुइ – स्त्री आ पुरुष केर प्रकार मे बना देलाह, जाहि सँ स्त्री तथा पुरुष परस्पर गाढ आलिङ्गनबद्ध भऽ सकल, ओहि दुनू मे स्त्री स्वरूप केर नाम भेल ‘शतरूपा’ आर पुरुष स्वरूप केर नाम भेल ‘मनु’। वैह दुनूक सङ्गम मे स्त्रीक प्रमुखता सँ बालिकाक, पुरुषक प्रमुखता सँ पुरुषक आर दुनूक समता सँ नपुंसक केर उत्पत्ति भेल। शतरूपा जाहि-जाहि योनि केँ भावि स्त्री स्वरूपवती बनैत गेलीह, मनु सेहो ओहि-ओहि योनिक भावि पुरुषस्वरूप वला बनैता गेलाह, तखन ओहि दुनूक संगम सँ ओहि-ओहि योनिक स्त्री-पुरुषक उत्पत्ति होएत गेल आर एहि तरहें संसार भरिक सब योनिक स्त्री-पुरुषक उत्पत्ति भऽ गेल। अतः
‘लोके स्त्रीवाचकं यावत्तत्सर्व जानकी शुभा।
पुन्नामवाचकं यावत्तत्सर्वं त्वं हि राघव॥’
– अध्यात्म रामायण, अयोध्याकाण्ड – १/१८
हे राम! संसार मे स्त्रीवाचक जतेक अछि, ओ सब मङ्गला सीता छथि आर पुरुषवाचक जतेक अछि ओ सब अहीं छी।
क्रमशः….
हरिः हरः!!
हमर नोटः बहुत रास तथ्य जे पं. रुद्रधर बाबू उल्लेख कएने छथि ताहि मे वाचस्पति रचित टीका सहित विभिन्न विद्वान् लोकनि द्वारा अनेकानेक उपनिषद् तथा श्रुतिवचन सभक सुन्दरतम् सन्दर्भ सेहो देने छथि। हमरा लोकनि मिथिलावासी मध्य विद्याधन आ वैभव विज्ञान केर संपदा कतेक प्रचूर छल ई एहि सब प्रस्तुति सँ अवलोकन करय लेल भेटि जाइत अछि। पता नहि, कतेक तीव्रता सँ हम सब ह्रासोन्मुखी बनि गेल छी। जानि कि होयत भविष्य मे जँ संस्कृत शिक्षा हमर मिथिला सँ लोप भऽ जायत!
समस्त चराचर प्राणी तथा सम्पूर्ण विश्व साक्षात् भगवाने छथि
– पं. रुद्रधर झा (अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)
लेख निरन्तरता मे छठम् दिन…..
‘हरिः सर्वभूतेषु भगवानास्त ईश्वरः।
इति भूतानि मनसा कामैस्तैः साधु मानयेत्॥’
– श्रीमद्भागवतकथा – ७/७/३२
सब प्राणी मे भगवान् हरि छथि, तैँ मोन सँ सब प्राणी केँ ईश्वर बुझैत हुनका इष्ट वस्तु सँ सम्मान करू।
‘रवं वायुमग्निं सलिलं महीं च ज्योतींषि सत्वानि दिशो द्रुमादीन्।
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं यत्किञ्च भूतं प्रणमेदनन्यः॥’
– श्रीमद्भागवतकथा – ११/२/४९
आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, सब प्राणी, दिशा सब, वृक्षादि-नदी सब आर समुद्र भगवान् केर शरीर थिक, तैँ जाहि कोनो सचेतन आ अचेतन भूत केँ भगवदनन्य भाव सँ प्रणाम करू।
‘यस्मिन्सर्वमिदं भाति यतश्चैतश्चराचरम्।
यस्मान्न किञ्चिल्लोकेऽस्मिंस्तस्मै ते ब्रह्मणे नमः॥
बिकाररहितं शुद्धं ज्ञानरूपं श्रुतिर्जगौ।
त्वां सर्वजगदाकार मूर्ति चाप्याह सा श्रुतिः॥’
– अध्यात्म रामायण, युद्धकाण्ड ८/३८/४०
जाहि मे ई सब भासित होइत अछि, जाहि सँ ई चराचर उत्पत्ति लैत अछि तथा जाहि सँ भिन्न एहि संसार किछुओ नहि अछि, ओ सशक्ति ब्रह्म, अहाँ केँ नमस्कार अछि। श्रुति अहाँ केँ विकाररहित, शुद्ध आ ज्ञान स्वरूप गान केलक अछि, आर ओ श्रुति अहाँ केँ समस्त विश्वरूप सेहो कहलक अछि।
यथा –
‘हिरण्यगर्भस्ते सूक्ष्मं देहं स्थूलं विराट् स्मृतम्।
भावनाविषयो राम सूक्ष्मं ते ध्यातृमङ्गलम्।
भूतं भव्यं भविष्यच्च यत्रेदं दृश्यते जगत्॥३३-३४॥
स्थूलेऽण्डकोशे देहे ते महदादिभिरावृते।
सप्तभिरुत्तरगुणैर्वैराजो धारणाश्रयः॥३५॥
त्वमेव सर्वकैवल्यं लोकास्तेऽबयवाः स्मृताः।
पातालं ते पादमूलं पार्ष्णिस्तव महातत्वम्॥
रसातत्वं ते गुल्फौ तु जलातलमितीर्य ते।
जानुनी सुतलं राम ऊरुते वितलं तथा॥३७॥
अतलं च मही राम जघनं नाभिगं नभः।
उरः स्थलं ते ज्योतींषि ग्रीवा ते मह उच्यते॥३८॥
वदनं जनलोकस्ते तपस्ते शंखदे शगम्।
सत्यलोको रघुश्रेष्ठ शीर्षण्यास्ते सदा प्रभो॥३९॥
इन्द्रादयो लोकपाला बाहवस्ते दिशः श्रुती।
अश्विनौ नासिके राम वक्त्रं तेऽग्निरुदाहृतः॥४०॥
चक्षुस्ते सविता राम मनश्चन्द्र उदाहृतः।
भू भङ्ग एव कालस्ते बुद्धिस्ते वाक्पतिर्भवेत्॥४१॥
रुद्रोऽहंकाररूपस्ते वाचश्छन्दांसि तेऽव्यय।
यमस्ते दंष्ट्रदेशस्थो नक्षत्राणि द्विजालयः॥४२॥
हासो मोहकरी माया सृष्टिस्तेऽपाङ्गमोक्षणम्।
धर्मः पुरस्तेऽधर्मश्च पृष्ठभाग उदीरितः॥४३॥
निमेषोन्मेषणे रात्रिर्दिवा चैव रघुत्तम।
समुद्राः सप्त ते कुक्षिर्नाड्यो नदयस्तव प्रभो॥४४॥
रोमाणि वृक्षौषधयो रेतो वृष्टिस्तव प्रभो।
महिमा ज्ञानशक्तिस्ते एवं स्थूलं वपुस्तव॥४५॥’
– अध्यात्म रामायण, अरण्यकाण्ड ९
राम! अहाँक सूक्ष्म देह हिरण्यगर्भ आर स्थूल शरीर विराट् कहायल अछि। अहाँक सूक्ष्म रूप ध्याताक कल्याणकारक, भावनाक विषय थिक, जाहि मे भूत, भविष्य आर वर्तमान ई जगत् देखाइत अछि॥३३-३४॥ अपन-अपन आवरणीय उत्तरोत्तर तत्त्व सँ दश गुना अधिक पूर्वपूर्व महतत्वादि सात आवरण सँ घेरायल अहाँक स्थूल ब्रह्माण्ड शरीर मे धारणाक आश्रय विराट् शरीर स्थित अछि॥३५॥ अहीं सर्वमोक्षस्वरूप थिकहुँ, समस्त लोक अहींक अवयव थिक, पाताल अहाँक चरणचलत थिक आर महातल एँड़ी थिक॥३६॥ राम! रसातल अहाँक टखना थिक, तलातल आर सुतल जांघ वितल दुइ ऊरू थिक॥३७॥ अतल तथा पृथिवी कटिदेश थिक, भुवर्लोक नाभि अछि, स्वर्लोक वक्षःस्थल अछि, महर्लोक ग्रीवा थिक॥३८॥ रघुश्रेष्ठ! जनलोक अहाँक मुख थिक, तपोलोक ललाट थिक तथा सत्यलोक मस्तक थिक॥३९॥ राम! इन्द्रादि सब लोकपाल अहाँक भुजा (हाथ सब) छथि, दिशा आदि श्रोत्र थिक, अश्विनीकुमार नासिका छथि आर अग्नि अहाँक मुख कहल गेल अछि॥४०॥ राम! सूर्य अहाँक नेत्र थिक, चन्द्रमा मोन थिक, काल भूभङ्ग थिक आर बृहस्पति अहाँ बुद्धि थिकाह॥४१॥ अक्षय! रुद्र अहाँ अहङ्कार छथि, वेद अहाँक वाणी थिक, यम अहाँक दाढ थिक तथा नक्षत्रगण अहाँ दन्तावलि थिक॥४२॥ सबकेँ मोहित करयवला माया अहाँ हास थिक, सृष्टि अहाँक कटाक्ष थिक, धर्म अहाँ ऐगला भाग आर अधर्म पैछला भाग थिक॥४३॥ रघूत्तम! राति तथा दिन अहाँक निमेषोन्मेष थिक। प्रभो! सातो समुद्र अहाँक कुक्षि आर नदी सब नाड़ी थिक॥४४॥ प्रभो! वृक्ष तथा औषधि आदि अहाँक रोम थिक, वृष्टि अहाँक वीर्य आर ज्ञानशक्ति अहाँ महिमा थिक। एहि तरहें अहाँक स्थूल शरीर अछि॥४५॥
बृहदारण्यक उपनिषद् मे सेहो लिखल अछि – आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथिवी ब्रह्म केर शरीर थिक। एहि तरहें सम्पूर्ण जड़ पदार्थ भगवान् केर अपर स्वरूप थिक, जे चेतना सँ निर्मित भेलाक कारण चेतनमय अछि, जेना सुवर्ण सँ रचित आभूषण सुवर्णमय अछि।
एहि तरहें पूरा विचार कयला सँ निष्कर्ष ई भेल जे – भगवान् केर परतम् स्वरूप – सच्चिदानन्द, नित्य, निर्गुण, निराकार, निर्विकार, ब्रह्म, आत्मा थिक, परतर स्वरूप – सच्चिदानन्दमय-सत्वरजस्तमोगुणात्मक परतरशक्तिमान् सर्वज्ञ सर्वसमर्थ सच्चिदानन्दमय अनन्त जीवात्मा थिक आर अपर स्वरूप – चेतनमय सम्पूर्णजड़ ब्रह्माण्ड थिक। जेना दुग्धमय जल सँ हंस जल केँ छोड़िकय दुग्ध केँ ग्रहण करैत अछि, तहिना परमनिष्काम, निर्मम तथा निरहङ्कार ज्ञानी चेतनमय जड़ सँ जड़ केँ त्यागिकय चेतन केँ ग्रहण (प्राप्त करैत) अछि।
लेख निरन्तरता मे…. क्रमशः…..
हरिः हरः!!
समस्त चराचर प्राणी तथा सम्पूर्ण विश्व भगवाने छथि
 
– पं. रुद्रधर झा (अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)
 
लेख निरन्तरता मे ‘सातम दिन’…….
 
(गज्जब अनुभूतिक संग आइ सातम दिन एहि लेख केँ पठन-मनन आ संग-संग अनुवाद करैत अपने लोकनि धरि मैथिली जिन्दाबाद मार्फत समस्त लेख-पाठ राखि रहलहुँ अछि। ओना तऽ स्वाध्याय सभक वश केर बात नहि होएछ, तथापि जतबा लोक ई महत्वपूर्ण तत्त्व सब ग्रहण कय रहल होयब ओ निश्चित एकर लाभ उठायब।)
 
‘जगतामादिभूतस्त्वं जगत्वं जगदाश्रयः।
वाच्यवाचक भेदेन भवानेव जगन्मयः॥’
 
– अध्यात्म रामायण, बालकाण्ड ५/५२/१, ५/५३/१
 
अहाँ जगत् केर आदिकारण, जगत्-रूप तथा जगत् केर आश्रय थिकहुँ। अर्थ-शब्द या नामी-नाम भेद सँ अहीं समस्त जगत्-रूप छी।
 
चराचराणां भूतानां बहिरन्तश्च राघव।
व्याप्यव्यापकरूपेण भवान् भाति जगन्मयः॥’
 
– अध्यात्म रामायण, युद्धकाण्ड ३/२१
 
राघव! चराचर भूत केर बाहर आ भीतर व्याप्य व्यापक रूप सँ अहीं विश्वरूप भऽ भासित भऽ रहल छी। अतः सब प्राणी तथा समस्त विश्व भगवाने छथि।*
 
*यैह पंक्ति सँ स्रष्टा लेखक एहि लेख केर ‘शीर्षक’ निर्धारित कएने छथि। ध्यानपूर्वक मनन करय योग्य बात ईहो थिक।
 
यद्यपति सम्पूर्ण प्राणीक समस्त शरीर मे प्रत्यक्ष चेष्टा, वृद्धि, ह्रास, तथा भग्न-क्षत-संरोहण आदि क्रिया सँ चेतन रूप भगवान टा केर सत्ता बुझय मे अबिते अछि, तथापि सब प्राणीक सकल देह केर सुरक्षाक लेल भगवान् टा प्राणिमात्रक देह केँ धारण करैत छथि, ओहि मे आगन्तुक रसस्वरूप सोमरूप सँ आबि-आबिकय विराजमान होइत रहैत छथि आर स्थायी अग्नि रूप सँ रहैत छथि, जेकरा जगद्गुरु भगवान् कृष्ण कहलनि अछि –
 
‘गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णमि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वारसात्मकः।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥’
 
– श्रीमद्भगवद्गीता १५/१३-१४
 
हम (भगवान्) पृथिवी मे प्रवेश कय अपन शक्ति सँ सब भूत केँ धारण करैत छी आर रसस्वरूप सोम बनिकय सम्पूर्ण भक्ष्य (प्राणिमात्र केर देह) केँ पुष्ट करैत छी। हम (भगवान्) सब प्राणी केर समस्त शरीर मे रहयवला प्राण तथा अपान (वायु) सँ संयुक्त भऽ अग्नि बनिकय चारि (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य आ चोष्य) प्रकारक अन्न केँ पचबैत छी।
 
एहि अग्नि (विलक्षण तेज) केर संयोग सँ अधिकांश प्राणीक देह मे पहुँचल रहल रस क्रमशः रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा आर शुक्र बनबैत अछि, तथा वृक्षादि सब मे होयवला सब वस्तुक रूप केँ धारण करैत अछि तथा ‘थर्मामीटर’ सँ एहि अग्निक गर्मीक पता लगैत अछि।
 
एहि तरहें उक्त सब प्रमाण ओ युक्ति सब सँ सिद्ध अछि जे –
 
“भगवान् अपन साक्षात् स्वरूप समस्त ब्रह्माण्ड आर सम्पूर्ण जीव केर बाहर ओ भीतर केँ अपन समरूप परतम आ परतर स्वरूप सँ सदा व्याप्त (ओतप्रोत) कएने छथि, जे (भगवान्) प्राणी सब मे – स्थावर वृक्षादि तथा जङ्गम मनुष्यादिक शरीर मे सदा स्थित अपन विशेष रूप अग्नि (विलक्षण तेज) केर संयोग सँ ओहि (शरीर मे) पहुँचल पृथिवी आर अन्नादिक अपन विशेष रूप रसस्वरूप सोम केँ ओहि शरीर केर सब अवयव घटक वस्तुरूप सँ सदा परिणत करैत रहैत छथि। अतः समस्त प्राणी केर सम्पूर्ण शरीर केर घटक सब वस्तु भगवद्रूप रसात्मक सोम सँ साक्षात् या परम्परया निर्मित होयबाक कारण भगवन्मय टा अछि। एहेन स्थिति मे प्राणीक शरीरक कोनो अंशक दर्शन साक्षात् भगवान् केर मात्र दर्शन थिक, फेर सम्पूर्ण शरीर केर दर्शन प्रत्यक्ष भगवानहि केर दर्शन थिक, ई तऽ स्वतः सिद्ध अछिये।
 
‘न तदस्ति क्वचिद् राजन् यत्राहं न प्रतिष्ठितः।
न च तद् विद्यते भूतं मयि यन्न प्रतिष्ठितम्॥
यद्भूदं यद् भविष्यच्च तत्सर्वमहमेव तु।
मया सृष्टानि भूतानि मन्मयानि च भारत॥’
 
– महाभारत अश्वमेधिकापर्व
 
राजन्! कतहु कोनो एहेन वस्तु नहि अछि जाहि मे हम विराजमान नहि होइ आर एहेन कोनो भूत नहि अछि जे हमरा मे सुस्थित नहि हो। भूत आर भविष्य जे किछु अछि, ओ सब हमहीं हम छी। भरतनन्दन! हमरहि सँ उत्पन्न समस्त भूत हमरहि स्वरूप थिक।
 
‘यदा हि युक्तमात्मानं सम्यक् पश्यति देहभृत्।
न तस्येहेश्वरः कश्चित् त्रैलोक्यस्यापि यः प्रभुः॥’
 
– महाभारत अश्वमेधिकापर्व – अनुशासनपर्व १९/२४
 
देहधारी जीव जखन एकाग्र चित्त सँ आत्माक यथार्थ परतम स्वरूप केँ देखैत रहैत अछि, तखन ओकरा ऊपर त्रिभुवन केर अधीश्वरक पर्यन्त आधिपत्य नहि रहैत छैक।
 
‘यथा संकल्पयेद् बुद्धया यदा वा मत्परः पुमान्।
मयि सत्ये मनो युञ्जंस्तथा तत्समुपाश्नुते॥
यो वै मद्भावमापन्न ई शितुर्वशितुः पुमान्।
कुतश्चिन्न विह्न्येत तस्य चाज्ञा यथा मम॥’
 
-श्रीमद्भागवतकथा ११/१५/२६/२७
 
जे व्यक्ति जखन हमरा सत्य परतर भगवान् मे मोन केँ एकाग्र करैत हमरे अपन आत्मा जनैत रहैत अछि, ओ तखन जेकरा जाहि प्रकार सँ पेबाक लेल संकल्प करैत अछि, ओकरा से ताहि प्रकार सँ प्राप्त होइत छैक। जे व्यक्ति ईशित्व आर वशित्व सिद्धि सँ युक्त हमर भाव केँ प्राप्त रहैत अछि, ओकर आज्ञा हमर आज्ञाक समान केकरो सँ टालल नहि जा सकैत अछि। मनुष्य चाहे तऽ अपन मोन केँ निर्मल (राग-द्वेषरहित समं) कय भगवान् केर सहारे कोनो स्थिति केँ प्राप्त कय सकैत अछि।
 
ॐ तत्सत्!
 
हरिः हरः!!