काशी मे गंगालाभ सँ मुक्ति

स्वाध्याय

(अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)

काशी मे गंगालाभ सँ मुक्ति

महाकवि कोकिल विद्यापतिः गंगालाभ प्राप्त महापुरुष

ई कथा कल्याण मे श्रीसत्यजी ठाकुर लिखने छथि –

 
काशी मे एक साध्वी वृद्धा विधवा रहैत छलीह। हम सब हुनका ‘खालिसपुराक माँ’ केर नाम सँ जनैत छियन्हि। सब प्रकार सँ सम्बलहीन भऽ कय केवल धर्मक ऊपर निर्भर रहिकय ओ काशीसेवन करैत छलीह। हमरा लोकनिक धारणा अछि जे ओ धार्मिक जीवन मे बहुत ऊँच भूमिका पर स्थित छलीह। किछु समय धरि हुनका पास रहला सँ या हुनकर वाक्य श्रवण केला सँ मोन एक अपूर्य धर्मभाव सँ पूर्ण भऽ जाएत छल। हुनकर जीवनक निम्नलिखित घटना हम कइएक मित्र लोकनिक संग हुनकहि मुंह सँ सुनने छी। से कथा हुनकहि शब्द मे एतय प्रस्तुत कय रहल छी –
 
‘ताहि दिन हमर पति जीविते छलाह। एकटा बूढिया बिलाइड़ कतहु सँ आबिकय हमर घर मे रहय लागल। ओकरा मे विशेषता ई छलैक जे ओ हमरा सभक संग निरामिष आहार करय, मांस खेबाक लोभ मे दोसर जगह कतहु नहि जाय आ एकादशीक दिन किछो नहि खाएत छल। बेसीकाल हमरे लग पड़ल रहैत छल। काल-क्रम मे ओहि बिलाइड़क मृत्यु भेलैक आर ओकरा सड़कपर एक दिस फेकबा देल गेलैक, जाहि सँ ओकरा डोम आबिकय उठा लऽ जाएक। लेकिन हम सोचलहुँ, डोम ओकरा नहि जानि कतय लऽ जा कय फेंक देतैक? एहेन हिंसाशून्य सद्गुणी बिलाइड़ तऽ देखय मे नहि अबैत अछि, कि एकर शव केँ गंगा मे फेकल जा सकैत अछि?
 
स्वामी सँ जखन हम ई कहलियैन तऽ पहिने कनेक तमसा जेकाँ गेला। बिना मतलब हुनका एक दुर्गन्धयुक्त मृत पशु केँ लऽ गेनाय ठीक नहि बुझेलनि, मुदा पाछाँ हमर हृदयक वेदना केँ अनुभव करैत ओ ओकरा लऽ जेबाक वास्ते राजी भऽ गेलाह। हम ओहि बिलाइड़ केँ एकटा लाल कपड़ाक एक टुकड़ा मे लपेट देलियैक। ओ ओकरा गंगाजी मे बहा एला आर आबिकय हमरा सँ कहलनि जे ‘बिलाइड़ केँ अहाँक मनचाहा गंगाप्राप्ति भऽ गेलनि।’
 
एहि घटनाक पाँच-छः दिन बाद अन्चोके एक दिव्य मनुष्याकृति सधवा रमणी, जे लाल पाड़की साड़ी पहिरने छलीह आ जिनकर सीथ मे सेनुर भरल छलन्हि, हमरा समीप आबिकय बैसि गेलीह। हम पूछलियैन – “बहिन! अहाँ के थिकहुँ?” ओ कहली – “हम वैह बिलाइड़ छी, जेकरा अहाँ दया कय केँ गंगाजी मे प्रवाहित करा देने रही; आब हम मुक्त भऽ कय जा रहल छी, ताहि हेतु जेबा सँ पहिने अहाँ संग भेटय लेल एलहुँ।” एतेक कहिकय ओ तुरन्त अन्तर्धान भऽ गेलीह। हम अपन आसन पर बैसले रहि गेलहुँ। हम देखलहुँ, कतेको रास देवी-देवता ओकर आगमनक प्रतीक्षा मे बैसल छथि, नहि जानि कोन पाप सँ बेचारी केँ किछु दिनक लेल बिलाइड़क योनि मे रहय पड़लैक!’
 
हरिः हरः!!