भाइ-भाइ मे फूट, आजुक विडंबना

भरत समान दोसर कियो भाइ नहि

स्वाध्याय-विचार

– प्रवीण नारायण चौधरी
 
ठीक छैक, मानि लेलहुँ… हम सब कलियुगी जीव छी। मुदा कल्याणक मार्ग जाहि स्वाध्याय सँ भेटैत अछि तेकर आनन्द-परमानन्द मे डूबय सँ कतहु मना नहि अछि। हम मानैत छी, जानैत छी, देखैत आ भोगैत छी – भाइ-भाइ मे स्नेह खत्म भऽ रहल अछि। विरले कतहु कोनो भाइ अपन भाइ सँ आइयो स्नेह जोगौने होयत! कारण सेहो पता अछि। स्वार्थ, लोभ, कपट, कुटिलता, आदि अनेकानेक मानसिक अवसाद सँ ग्रस्त हम मानव आइ मानवताक नाटक टा करैत छी। एहेन घड़ी हमरा लोकनि रामचरितमानस मे वर्णित राम-भरत बीच भ्रातृ-स्नेहक दृष्टान्त जरूर मनन करी।
 
आइ हम ओ कथा अनलहुँ अछि जे पढिकय तुरन्त हृदय मे प्रेम उमड़त, भक्ति आ शक्तिक मिश्रित गुदगुद्दी लागत, गन्दगी मिनट मे बहरा जायत…..! रामचरितमानस मे एकटा दृश्य देखल जाउ –
 
लंकाक रणक्षेत्र मे मेघनादक शक्ति-प्रहार सँ श्रीलक्ष्मणजी मुर्च्छित भऽ गेलाह। लंकाक सुषेण वैद्यक आज्ञा सँ श्रीहनुमानजी द्रोणाचल पर्वत पर सँ विशल्यकर्णी औषधि (संजीवनी बूटी) आनय लेल चलि देलनि। ओ ओतय पहुँचिकय अमुक औषधि केँ चिन्ह नहि पेलाह आर ओ पूरा पर्वत केँ उखाड़िकय लय केँ चलि पड़ला। जखन ओ रात्रिक समय आकाशमार्ग सँ अयोध्यानगरीक ऊपर सँ पर्वत लेने जा रहल छलाह, भरतजी हुनका एकटा अति विशाल निशाचर बुझिकय बिना फलक बाण मारलनि। बाण लगैत देरी श्रीहनुमानजी ‘राम, राम, रघुपति’ केर उच्चारण करैत मूर्च्छित भऽ कय पृथ्वीपर खैस पड़लाह –
 
देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि॥
परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक॥
– रामचरितमानस ६/५८, ५९/१
 
एक बेर भगवान् राम उक्त घटनाक सन्दर्भ मे अपन प्रिय अनुज भरतजी सँ कहलनि, “हे भरत! अहाँक भुजाक क्षमता धन्य अछि। अहाँक बिना फलक बाण सँ हनुमानजी समान योद्धा पृथ्वी पर खसि पड़ल छलाह, जिनका परास्त करबाक क्षमता ब्रह्माण्ड केर कोनो योद्धा मे नहि अछि।”
 
ई बात सुनिते भरतजी व्यथित भऽ प्रभुजीक श्रीचरण पकड़िकय कहय लगलाह – “प्रभो! ओहि घटनाक स्मृति सँ हमरा ग्लानि, हीनभावना आर लाज अबैत अछि। चित्रकूट मे अहाँ नहि तऽ अयोध्या लौटबाक हमर प्रस्ताव स्वीकार कयलहुँ आर नहिये वन मे अपना संग हमरो रहबाक अनुमति देलहुँ। अयोध्या मे हनुमानजीक मूर्च्छित भेलापर ओ बात रहस्य नहि रहि गेल जे आखिर अपने हमर परित्याग कियैक कयलहुँ? प्रभो! अहाँ अपन छोट भाइ बनाकय हमरा ऊपर अपार करुणा केलहुँ अछि, मुदा हमर करनी रावण आर मेघनाद जेकाँ अछि।”
 
एतेक सुनिते भगवान् रामचन्द्र चौंकिकय पूछलनि, “भरत! अहाँ केहेन बात करैत छी? मेघनाद आ रावण सँ अहाँक केहेन तुलना?”
 
श्रीभरतजी कहलखिन, “प्रभो! हमर कहब उचिते अछि। मेघनाद त भाइ लक्ष्मण केँ शक्तिपात सँ मूर्च्छित कयने रहय आ हम सेहो लक्ष्मणक प्राणक रक्षा करबाक लेल औषधि लऽ गेनिहार हनुमानजी केँ मूर्च्छित कयलहुँ। हम मेघनादो सँ बेसी अपराधी भेलहुँ। तहिना, रावण सेहो कालनेमि राक्षस पठाकय औषधि लाबय गेनिहार हनुमानजीक रास्ता रोकबाक चेष्टा कएने छलय, जाहि सँ औषधि देरी सँ पहुँचय। तेनाही हमहुँ हनुमानजी केँ बाण मारिकय, हुनका गिराकय विलम्ब पहुँचेलहुँ। प्रभो! अहाँ हमर परित्याग कय केँ ठीक चिन्हलहुँ।”
 
पूज्यपाद गोस्वामीजी श्रीरामचरितमानस मे भरतजीक यैह उद्गार प्रकट कयलनि –
 
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा । ताते नाथ संग नहिं लीन्हा ॥
– रामचरितमानस ७/१/४
 
श्रीभरतजीक एहेन उद्गार सुनिकय प्रभु श्रीराम हनुमानजी सँ पूछय लगलाह – “हनुमन्त! भाइ भरत एहेन बात कियैक कय रहल छथि? कि कहय चाहि रहल छथि?”
 
श्रीहनुमानजी प्रभुजीक श्रीचरण केँ पकड़िकय बाजय लगलाह – कनी ध्यान दियौक भक्तजनः
 
“भगवन्! भैया भरत सन्त छथि, हिनकर सन्तप्रकृति अछि आर अपनेक परम भक्त छथि। हम तऽ यैह कहब जे हिनकर सब काज अहाँ सँ बढिकय अछि, बेसी महान् अछि। जेना –
 
१. प्रभो! अपनेक बाण बड़ा चमत्कारी अछि, दिव्य अछि तथा अमोघ अछि, मुदा भरतजीक पास एहेन दू टा बाण छन्हि जे अपनहुँ केर पास मे नहि अछि। भरतजी मे दिव्य दृष्टि छलन्हि जे ओ हमरा मोन मे आबयवला भ्रम तथा अभिमान केँ देखिकय ओहिपर अपन बाण सँ प्रहार कएने छलाह।
 
२. भैया लक्ष्मणजीक मूर्च्छा दूर करबाक लेल लंका सँ वैद्य एलाह, द्रोणाचल सँ औषधि आयल। जखन हम अयोध्या मे मूर्च्छित भऽ कय खैस पड़लहुँ, तखन भरती अयोध्या सँ वैद्य बजाकय हमर मूर्च्छा दूर नहि करौलनि। ओ तऽ स्वयं दू क्षण मात्र मे हमर मूर्च्छा दूर कय देलनि। ओ कहने छलखिन – जँ मन, वचन आ शरीर सँ प्रभुक श्रीचरण मे हमर निष्कपट प्रेम अछि, हुनकर हमरा पर कृपा अछि तऽ ई वानर श्रम तथा शूल (थकाबट आ पीड़ा) दुनू सँ मुक्त भऽ जाय। प्रभो! अपनेक भक्तिक प्रति भरतजी केँ कतेक बेसी विश्वास छलन्हि जे हुनकर वचन केँ सुनैत देरी हमर मूर्च्छा दूर भऽ गेल, हम उठिकय बैसि गेल रही।
 
३. श्रीभरतजी हमरा सँ कहने छलाह – अहाँ पर्वतसहित हमर बाणपर बैसि जाउ, हम अहाँ केँ कृपाधाम प्रभु श्रीरामजीक पास पहुँचा दी। प्रभो! हमरा तऽ भार उठेबाक कार्य देल गेल छल, मुदा अपने कृपा सँ हमर भार उठेबाक लेल हमरा एहेन सन्त-भक्त भरतजी भेटलाह।
 
४. प्रभो! अहाँक पास अग्नि, जल, पहाड़ आदि बरसाबयवला तथा सिर काटयवला बाण अछि। भरतजीक बाण जेहेन, जे ईश्वरक पास पहुँचाबैत-भेटबैत अछि, अहुँक पास मे नहि अछि। हुनकर एक बाण अभिमान मिटाबयवला तथा दोसर ईश्वर सँ भेटाबयवला अछि।
 
५. प्रभो! ई सत्य छैक जे अहाँक बाण लगला सँ राक्षस अहाँ मे विलीन भऽ गेल। अहाँक बाण अहाँ सँ भेटबैत त अछि, मुदा मरलाक बाद। भरतजीक बाण तऽ जीतेजी मिला दैत अछि।
 
६. अहाँ माता कैकेरयी सँ प्राप्त चौदह वर्षक वनवास तपस्वी बनिकय बितेने छलहुँ, जखन कि अहाँक भक्त भरतजी सब सुख-सुविधा त्यागिकय अयोध्या सँ बाहर नन्दग्राम मे पर्णकुटी बनाकय पूरे चौदह वर्ष तपस्वी जीवन बितौलनि।
 
श्रीभरतजी प्रति हनुमानजीक भावमय प्रेमोद्गार सुनिकय प्रभु श्रीराम अति प्रसन्न भेलाह आर कहय लगलाह –
 
“हनुमन्त! अहाँक कहब यथार्थ थिक। भरतजीक समान पवित्र आर उत्तम भाइ संसार मे नहि छैक।” सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना॥ – रामचरितमानस २/२३२/४ – पिता चक्रवर्ती महाराज दशरथ केर हम दुनू भाइ दुनू आँखिक समान छलहुँ। ‘मोरें भरतु रामु दुइ आँखी – रामचरितमानस २/३१/६ – गुरुदेव कहि रहल छलाह जे चित्रकूट यात्रा मे हुनकर आश्रम मे भाइ भरत सँ भेटनिहार जे कोनो भील, किरात आदि वनवासी तथा वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, संन्यासी आर विरक्त हमरा लोकनि केँ कुशलपूर्वक देखबाक समाचार कहनि तिनका सब केँ ओ हमरे जेकाँ मान-दान करथि। – ‘जे जन कहहिं कुसल हम देखे । ते प्रिय राम लखन सम लेखे ॥’ – रामचरितमानस २/२२४/७ – चित्रकूटयात्रा मे मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजीक आश्रम मे आयल भरत केँ ओ कहने छलखिन जे हुनका हमर दर्शनक महान् फल भरतजीक दर्शनक रूप मे भेलन्हि – ‘तेहि फलु कर फल दरस तुम्हारा । – रामचरितमानस २/२१०/५ – कौसल्या माता हुनका सदैव कुल केर दीपक रूप मे चिन्हैत रहली, महाराज हुनका सँ बेर-बेर यैह कहने छलाह – ‘जानउँ सदा भरत कुलदीपा । बार बार मोहि कहेउ महीपा ॥’ – रामचरितमानस २/२८३/५”
 
श्रीहनुमानजी केँ कहल गेल भ्रातृ-प्रेमक वाणी सुनिकय भरतजी प्रभुक श्रीचरण पकड़ि हुनकर मुंह दिस ताकय लगलाह। प्रभु हुनका उठाकय हृदय सँ लगौलनि – भाइ भरत! ई कोनो स्तुति नहि, अपितु सत्य थिक। अयोध्याक लोकक मोन मे दुर्गुण हमरा रहिते आबि गेल छलैक, मन्थराक लोभवृत्ति नहि मिटेलैक, माता कैकेयी केर बुद्धि मे मलिनता आयल तथा महाराज दशरथ केर मन मे कामुकता आयल। भरत! अहाँक कृपा होइते समस्त अयोध्यावासी हमरा पास चित्रकूट पहुँचि गेल। ताहि समय हम जे कहने रही ओ शाश्वत सत्य थिक। हे भरत! अहाँक नामस्मरण कैत देरी सब पाप-प्रपंच आर समस्त अमंगलक समूह मिटा जायत तथा एहि लोक मे सुन्दर यश तथा परलोक मे सुख प्राप्त होयत –
 
मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार॥
– रामचरितमानस २/२६३
 
हरिः हरः!!