मैथिलीभाषीक दरिद्रता कोना दूर होयतः चिन्तन

अपन पिछड़ापणपर चिन्तन-मनन जरुरीः मैथिलीभाषीक दरिद्रता कोना दूर होयत
 
पैछला सप्ताह धीरेन्द्र भाइजी विराटनगर छलाह त एकटा बड रोचक प्रसंगपर बात होएत समय कहलखिन – मिथिलाक माटि-पानि-आवोहवा तेहेन अनुकूलित छैक जे चिड़ै-चुनमुनी सेहो कोनो फर खाकय कतहु चटक कय दैछ त ओहु सँ सुरेबगर गाछ सब जनैम जाएत छैक। एक दिस सृजनकर्मीक बाढि त दोसर दिस सृजनक स्वरूपपर मेक्चोबाजी! नेपालक मिथिलामे नित्य नव सृजनकर्मसँ मैथिली कतेक आगू भागि रहल अछि, तेकर ठीक बिपरीत भारतक मिथिला दिसक अनेकानेक भूप लोकनिकेँ विभक्ति-भक्तिक प्रयोग-उपयोगमे ‘हंटाकय’ आ ‘सटाकय’ लेखन कयल जाय से निर्णयक द्वंद्वमे एहि २१म शताब्दीमे देखल जा रहल अछि।
 
विडंबना देखू – फल्लाँ बड पैघ साहित्यकार भेलाह आ कि छथि से सब समीक्षा गोटेक-आधेक विद्वानक मुंहें सुनय लेल भेटैछ, धरि फल्लाँक कृत्ति कतबे कम दूरी धरि पसैर सकल जे घरक बगलोक लोककेँ जनतब नहि छैक आ एना कियैक भेलैक – ई दुरावस्था कियैक छैक – मैथिली भाषा-साहित्य कियैक लोपोन्मुख भऽ गेल तेहेन-तेहेन भूप सबकेँ रहितो… ताहि विन्दुपर सब मूरी गोंतने आँखिक नहसँ बिलाड़ि जेकाँ माटि कोरैत रहैत छथि।
 
अवस्था साफ अछि – मैथिली भाषा-साहित्यसँ जन-जनकेँ जोड़यवला विद्यापति, चन्दा झा, हरिमोहन झा, आदि किछेक नाम केँ छोड़ि देल जाय तँ हिनका लोकनिक समान आमजनक हितकेँ सोचैत कोनो कृत्ति-रचना हम-अहाँ ताहि ढंगक नहि कय सकलहुँ, ताहि हेतु हुनका जेकाँ जनकवि नहि भऽ सकलहुँ – अपन भाषाकेँ माटि नहि पकड़ा सकलहुँ। किछु लोक महाकवि जेकाँ जनप्रिय बनबो केलाह त मैथिलीक लोकप्रियता केँ तेहेन उत्कर्षपर नहि पहुँचा पेलाह जे ई भाषा जनगणमनक बनिकय राज्यक पोषण प्राप्त करैत। तथापि, संघर्ष सब दिन जारी राखल गेल। किछुए लोक सही, मुदा बहुत बादमे एक्का-दुक्का उपलब्धि भेटबो कयल त लोक अपने-आपसमे मारामारी करैत देखाएत अछि जे ‘हम केलहुँ तैँ एना’ त दोसर कहैछ जे ‘हम केलहुँ तैँ एना’। ई दुरावस्था अछि हमरा लोकनिक भाषाक।
 
नहि त संचारकर्महि ताहि ढंगे लोकप्रियता हासिल कय सकल, नहिये कला-संस्कृति, नहिये फिल्म आ सबसँ अधिक दुःखक बात जे पठनो-पाठन धरि मैथिलीक बड बेसी सहज आ आमजन लेल आकर्षक नहि बनि सकल। एतेक तक कि मैथिली ऐच्छिक विषय राखि बेसी मार्क्स पेबाक लोभहु रहैत बहुत बेसी लोक एकर लाभ उठेबाक लेल आगाँ आयल देखायल। तखनहु फन्ने खाँ बननिहार-कहेनिहारक धरोहिया लागब बन्न नहि भेल। आर कियो सम्मान नहियो करत त अपने सँ दोपटा ओढि लेब, पाग पहिरिकय फोटो खिंचा लेब, मिथिलारत्न ओ मिथिलाविभूति आदिक सम्मानपत्र ग्रहण कय लेब – ई सब होड़ चलिते रहल।
 
मोन पाड़ैत छी शिक्षा सह-निदेशक डा. ओंकारप्रसाद सिंह (मुंगेरवासी) द्वारा पटनामे कहल एकटा गूढ तथ्य – कि मैथिलीभाषामे पाठ्यक्रमक विकासपर कतहु विद्वत्-सम्मेलन भेल अछि…. कि एहि दिशामे कियो शोधकर्ताक शोधपत्र भेटत जे पठन-पाठन आरम्भ करयवला बच्चाकेँ मैथिलीमे सबसँ पहिने कि सीखेबाक चाही…. हम अल्पज्ञानी जबाब नहि दय सकल रही। किनको बुझल हो त विस्तार सँ बताउ।
 
हमर कहबाक तात्पर्य अछि जे हम सब यथार्थतः एखन धरि पिछड़ल वर्गक लोक छी। हमरा लोकनिक माटि-पानि-संस्कृतिक समृद्धिक कारण भले संस्कारमे कथमपि केकरो सँ कमजोर नहि जे संस्कृत माध्यमक शिक्षा होएक आ कि हिन्दी माध्यमक आ कि अंग्रेजी माध्यमक…. एतेक तक कि एहि मिथिलाक शिक्षितवर्गक लोक केँ अहाँ जर्मनी आ कि कोरियन आ कि लैटिन माध्यम सँ सेहो पढयलेल कहबैक त आराम सँ पाठ पूरा कय देत। मुदा जे बहुल्यजन पिछड़ल वर्गक अछि तेकरा मे उल्लेख्य सुधार आ साक्षरताक प्रतिशतता कोना बढत ताहि दिशामे कतेक चिन्तन-मनन कतय भऽ रहल अछि से सब निपत्ता आ अपन खरखाँही लूटय वास्ते बड़का-बड़का साहित्यिक गोष्ठी आ विद्वत्-सभा सभक आयोजन होएते रहैत अछि। कहबी छैक न…. अपन पेट भरल अछि त संसार सुझाएत अछि…. के जाएछ गरीबी आ विपन्नताक संग निज भाषाक कमजोर पक्षपर चिन्तन करय! मुदा वर्तमान पीढी वास्ते ई बहुत आवश्यक अछि जे अहाँ अपन पिछड़ापणकेँ दूर करबाक लेल जैड़ सँ सोचू।
 
हरिः हरः!!